Friday, July 11, 2014

दूधमुंहे बच्चों की अनोखी ‘पाठषाला’

बच्चों को षिक्षा देने के लिए देष भर में लाखों पाठषाला संचालित कराई जा रही हैं, लेकिन दूधमुंहे बच्चों की एक ‘अनोखी पाठषाला’ भी चल रही है, जहां बच्चों को संस्कारित षिक्षा देने के साथ ही, देषभक्ति गीतों से भी रूबरू कराया जाता है। संभवतः, यह देष का ऐसा पहला मामला होगा। जी हां, जांजगीर-चांपा जिले के नवागढ़ इलाके के गोधना गांव में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत कार्य के दौरान, ऐसा ही नजारा हर दिन देखने को मिलता है, जब दूधमुंहे बच्चों की ‘पाठषाला’ लगती है और उन्हें पढ़ाने पहुंचती हैं, अनपढ़ ‘सरजू बाई’। 60 साल की सरजू बाई, भले ही अषिक्षित हांे, लेकिन खुद के प्रयास से उन्होंने जो तामिल हासिल की है, उससे बच्चों का भविष्य जरूर निखर रहा है।
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना यानी मनरेगा के तहत होने वाले कार्य के दौरान, मजदूरों के 5 से अधिक बच्चों के लालन-पालन के लिए एक महिला को काम पर रखने का प्रावधान है। इसी के तहत पिछले पांच साल से ग्राम पंचायत गोधना में 60 साल की ‘सरजू बाई’ काम कर रही है। वैसे तो उनकी जिम्मेदारी कार्य के समय बच्चों की देखभाल की है, लेकिन वह अपने ज्ञान का प्रसार करने की चाहत रखते हुए बच्चों की पढ़ाई भी कराती है, जिस पर मजदूर भी गदगद नजर आते हैं। एक तो बच्चों की पढ़ाई हो जाती है, वहीं उनका मनोरंजन भी हो जाता है। लिहाजा, मजदूरों को काम के दौरान कोई समस्या नहीं होती।
सरजू बाई कहती हैं कि वह तीन महीने ही स्कूल गई थी, परंतु बाद में किसी कारणवष पढ़ाई छोड़नी पड़ी। जिसका उसे अब भी मलाल है। पढ़ाई की इच्छा शुरू से रही है, जिसके कारण वह गिनती, पहाड़ा तथा देषभक्ति गीतों को पढ़ती रहती थी। दिलचस्प बात यह है कि वह एक कक्षा भी नहीं पढ़ी है, लेकिन उन्हें ‘अक्षर’ के साथ ‘अंकों’ की भी पहचान और ज्ञान है, जिसके बाद वह आगे बढ़ती गईं और आज वह ढलती उम्र में, कहीं न कहीं षिक्षा की अलख जगाने वाली ‘खान’ बन गई हैं। वह कहती हैं, जब भी मन करता है, ‘देषभक्ति गीत’ गुनगुनाती रहती हैं। इस तरह एक के बाद एक, सब याद हो गए।
वह कहती है कि कुछ साल पहले तक उसे कई मुष्किलों का सामना करना पड़ा। उसे भीख तक मांगना पड़ा। बरसों तक गरीबी झेलनी पड़ी। मनरेगा में काम मिलने से उसे काफी लाभ हुआ है और उसकी आर्थिक हालात सुधरे हैं। मनरेगा में काम मिलने से उसके चेहरे पर संतुष्टि साफ नजर आती है।
निष्चित ही, सरजू बाई ने एक मिसाल कायम की है, क्योंकि अच्छी षिक्षा के बाद भी कई लोगों की पढ़ाई से मोह भंग हो जाता है, वहीं अनपढ़ होने के बाद भी वह पढ़ाई के प्रति अपनी जिज्ञासा बनाई हुई है, जिसकी जितनी भी तारीफ की जाए, कम ही नजर आती है। वह यह भी कहती है, दूधमुंहे बच्चों की देखरेख के साथ, स्कूल जाने से पहले कुछ पढ़ाई हो जाए तो, इसके बाद बच्चों को ही भविष्य में लाभ होगा।
मनरेगा के कार्यस्थल पर सरजू बाई, राष्ट्रगान गाती है और बच्चे उसे दोहराते हैं। यही हाल, गिनती व पहाड़ा का भी है। कई घंटों तक चलने वाले कार्य के दौरान यही सिलसिला चलते रहता है। जब वह राष्ट्रगान ‘जन-गण मन’ और ‘भारत देष हमारा, प्राणों से प्यारा’ गाती हैं तो बच्चे भी पूरे उत्साह से गाते नजर आते हैं। सरजू बाई, वंदे मातरम्, भारत माता की जय, जय हिन्द-जय भारत का जयघोष करती है तो बच्चे भी उस जयघोष को दोहराते हैं। इस तरह ‘सरजू बाई’ अनेक गाना गाकर भी सुनाती हैं, जिससे हर कोई भाव-विभोर हुए बिना नहीं रहता।
सरजू बाई, हिन्दी वर्णमाला, पहाड़ा और गिनती को बेहतर तरीके से पढ़ लेती हैं। उसका उच्चारण भी काफी अच्छा है। यही वजह है कि मनरेगा के कार्यस्थल पर काम करने वाले मजदूरों के बच्चों को सरजू बाई की बोली और भाषा में समझ में भी आती है। सरजू बाई को वर्णमाला ‘कखग’ से लेकर गिनती और पहाड़ा का अच्छा ज्ञान है। यह सब उसने किसी स्कूल में नहीं सीखा, बल्कि अपनी कोषिषों से उसने यह षिक्षा हासिल की है। यही सबसे बड़ी वजह है कि महिला होने के बाद भी, गोधना गांव ही नहीं, बल्कि आसपास कई गांवों में सरजू बाई की एक पहचान है।
इतना ही नहीं, बच्चों का कई मनमोहक गीतों से मनोरंजन कराती हैं। ‘हाथी देखो बड़ा जानवर, लंबी सूंड हिलाती है’, ‘हरे रंग का है यह तोता’, ‘रेल चली रे रेल, बड़े मजे का खेल’ जैसे मनोरंजक गीतों को भी गाती हैं और फिर बच्चे भी मग्न नजर आते हैं। मजदरू मां-बाप की भी याद, बच्चों को इस दौरान नहीं रहती। बच्चे बस, सरजू बाई की पढ़ाई व सीख की बातों में ही खोए हुए नजर आते हैं।
सरजू बाई, रानी लक्ष्मी बाई द्वारा फिरंगियों के खिलाफ की गई लड़ाई को भी गीतों के माध्यम से बखान करती हैं और कहती हैं, ‘दूर हटो फिरंगियों, आती है झांसी की रानी’।
सरजू बाई, हनुमान चालीसा का पाठ भी बेहतर तरीके से करती हैं और यह उसका रोज का रूटिन है। दिन भी सरजू बाई, धर्म-आस्था के गीतों के साथ रमी नजर आती है।
मनरेगा के कार्य स्थल पर दूधमुंहे बच्चों को संभालने के साथ उनकी पढ़ाई कराने की बात से, मजदूर भी खुष नजर आते हैं और उनकी तारीफ किए बगैर नहीं रह पाते। मजदूर खेमलाल और मोहन लाल कहते हैं कि बच्चों को कोई परेषानी नहीं होती, उनका भी काम अच्छे से होता है। वे कहते हैं कि बच्चों की देखभाल के साथ कई तरह की षिक्षा, सरजू बाई बच्चों को देती है, जिससे कहीं न कहीं उनके बच्चों को बचपन में ही अच्छी षिक्षा मिल रही है।
ऐसा ही कुछ कहना है कि गोधना गांव के रोजगार सहायक सुरेष कुर्रें का भी। छोटे-छोटे बच्चों को अच्छे से संभालती है। बढ़िया काम करती है, बच्चों को सीखाती-पढ़ाती है। रोजगार सहायक के मुताबिक, वह बेहतर तरीके से करती है। मनरेगा में काम मिलने से सरजू बाई की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ है, क्योंकि वह पिछले चार-पांच साल से काम कर रही है।
मनरेगा के जिला कार्यक्रम अधिकारी योगेष्वर दीवान का कहना है कि कम पढ़े-लिखे होने के बाद भी सरजू बाई का प्रयास, निःसंदेह सराहनीय है। वह कार्यस्थल पर बच्चों को अच्छी षिक्षा देती है, जिसकी जितनी प्रषंसा की जाए, कम ही होगी।
मजदरू परिवार के दूधमुंहे बच्चों को निष्चित ही ऐसी तालिम कम जगह ही मिलती होंगी। ऐसे में ‘सरजू बाई’ द्वारा जिस तरह बच्चों को ‘षिक्षा दान’ दिया जा रहा है, वह अनोखी मिसाल ही साबित हो रहा है, क्योंकि दूधमुंहे बच्चों की ऐसी अनोखी ‘पाठषाला’, शायद ही किसी ने देखी होगी और न ही सुनी होगी। ऐसे में षिक्षा की नींव को मजबूत करने वाली अनपढ़ ‘सरजू बाई’ के योगदान को, भुलाया नहीं जा सकता।

Thursday, July 3, 2014

जीवन भर ‘विद्यादान’ का महासंकल्प

जीवन में कर गुजरने की तमन्ना तो सभी की होती है, लेकिन बहुत कम होते हैं, जो समाज उत्थान की दिषा में अपना योगदान दे पाते हैं। जिले के खरौद में ऐसे ही व्यक्तित्व हैं, सेवानिवृत्त षिक्षक एमएल यादव, जिन्होंने जीवन भर ‘विद्यादान’ का महासंकल्प लिया है और अपने रिटायरमेंट के 9 साल बाद भी सरकारी स्कूल में निःषुल्क पढ़ा रहे हैं। षिक्षा के प्रति उनका इसकदर लगाव, निःसंदेह समाज को संदेष देता है और बताता है कि जीवन में षिक्षा क्यों जरूरी है और उसका कितना महत्व है।
सतत अध्ययनशील एवं मिलनसार व्यक्तित्व के धनी श्री यादव सेवानिवृत्त के बाद भी स्कूल में निःषुल्क शिक्षा प्रदान कर छात्र-छात्राओं के भविष्य को रौशन करने जुटे हैं। एमए राजनीति और इतिहास में शिक्षा प्राप्त 72 वर्षीय श्री यादव, 28 फरवरी 2005 को खरौद स्थित शासकीय उच्चतर माध्यमिक शाला के मिडिल विभाग से प्रधानपाठक के पद से सेवानिवृत्त हुए तथा उसी समय से ही वहां निःशुल्क सेवाएं शुरू कर दी।
श्री यादव ने ‘षिक्षादान’ को महासंकल्प के तौर पर ग्रहण किया है और वर्तमान में श्री यादव, कन्या पूर्व माध्यमिक शाला में निःषुल्क शिक्षा प्रदान कर छात्र-छात्राओं को विद्यादान कर रहे हैं। इस तरह सेवानिवृत्ति के बाद भी उनका निरंतर 9 बरस से स्कूल से लगाम कायम है। श्री यादव की निःशुल्क विद्यादान की चर्चा नगर सहित क्षेत्र भर में है। लोगों में उनकी पहचान एक कर्मठ तथा मृदुभाषी शिक्षक के रूप में है। उन्होंने 2005 में रिटायरमेंट के बाद सबसे पहले सुकुलपारा के मिडिल स्कूल में निःषुल्क पढ़ाना शुरू किया, जहां से वे खुद रिटायर हुए थे। उस दौरान षिक्षकों की भी कमी थी। वे बताते हैं कि रिटायमेंट के बाद उनकी मंषा थी कि वे किसी न किसी विद्यालय में पढ़ाएंगे।
 रिटायर षिक्षक एमएल यादव का स्वास्थ्य, उम्र के लिहाज से खराब होते जा रहा है। फिर भी वे स्कूल में निःषुल्क पढ़ाने से पीछे नहीं हट रहे हैं। अभी वे कन्या मिडिल स्कूल में पढ़ा रहे हैं, जहां वे 2007 से पढ़ा रहे हैं। स्वास्थ्यगत बाधा के बाद भी वे विद्यादान करने आगे आए हैं, जिसकी जितनी तारीफ की जाए, कम ही है।
उन्होंने नगर सहित क्षेत्र के छात्र-छात्राओं को साहित्य की दिशा में लाभान्वित करने अपनी पुत्री स्व. मंजूलता की स्मृति में ‘वाचनालय’ सन् 1997 में प्रारंभ किया था, जहां साहित्य के ज्ञान पिपासु अध्ययन करते रहे हैं। वर्तमान में जगह के अभाव के कारण उस वाचनालय का संचालन नहीं हो रहा है, मगर श्री यादव ने वाचनालय की पुस्तकों और अध्ययन सामग्रियों को अपने घर के एक कमरे में स्थान दिया है, जहां समयानुसार कई लोग वहां जाकर अध्ययन करते हैं।
वे कहते है कि विद्यादान पुण्य का कार्य है और वे जब तक जीवित रहेंगे, तब तक उनका यह संकल्प जारी रहेगा। अब तक किसी भी सम्मान या पुरस्कार से वंचित श्री यादव का कहना है कि वे कर्म पर विश्वास रखते हैं और उनके किसी प्रयास से समाज में होने वाले सकारात्मक परिवर्तन व आसपास के माहौल में सुधार ही, उनके लिए बड़ा पुरस्कार है। वे कहते हैं कि छात्र-छात्राओं द्वारा प्राप्त होने वाला ‘सम्मान’ सबसे बडा पुरस्कार है, जिसके सामने सभी पुरस्कार का महत्व शून्य है।
कन्या मिडिल स्कूल में बालिकाओं को पढ़ाने पर श्री यादव खुद को धन्य मानते हैं। बेटियों को पढ़ाने से उनके मन को संतोष मिलता है। वे इसी को अपना पुरस्कार मानकर चलते हैं।
श्री यादव, छात्र-छात्राओं की भलाई के लिए हमेषा आगे रहते आए हैं। षिक्षकीय जीवन में भी वे गरीब बच्चों को पुस्तकें खरीदकर देते थे। कभी जरूरत पड़ी तो परीक्षा के अलावा अन्य फीस भी भर देते। वे चाहते थे कि हर परिस्थति के बाद भी बच्चे पढ़ाई करे, किसी कारण से बच्चों की पढ़ाई में बाधा उत्पन्न न हो। वे छात्र-छात्राओं को षिक्षा के महत्व से अवगत कराते और उन लोगों के संस्मरण बताते, जिन्होंने षिक्षा समेत समाज के विकास में उल्लेखनीय योगदान दिया है। उनका ऐसा प्रयास आज भी जारी है।
वे वर्तमान षिक्षा के हालात से भी हतप्रभ हैं। वे कहते हैं कि षिक्षा के क्षेत्र में गिरावट आती जा रही है। षिक्षकों को बुद्धिजीवी माना जाता है। कुछ षिक्षकों में स्वार्थ की भावना नजर आती है, जो षिक्षा के विकास में घातक है। वे मानते हैं कि षिक्षकों को जो पारिश्रमिक मिलता है, उसके अनुरूप बच्चों को जो षिक्षा मिलनी चाहिए, वह नहीं मिलती।
खरौद के मिडिल कन्या स्कूल में पिछले 7 साल से पढ़ा रहे है। उनकी पढ़ाई के बेहतर तरीके से छात्राएं भी खुष नजर आती हैं। वे कहती हैं कि यादव गुरूजी अच्छे ढंग से पढ़ाते हैं। साथ ही पढ़ाई के दौरान दी गई जानकारी याद रहती है।
इतना ही नहीं, श्री यादव की लगन और विद्यादान के प्रति कर्मठ भावना से स्कूल के षिक्षक और षिक्षिकाएं भी गदगद नजर आते हैं। कई षिक्षकों को तो श्री यादव ने ही पढ़ाया है, इसलिए षिक्षकों के मन में अपने गुरूजी के प्रति श्रेष्ठ भावना नजर आती है। स्कूल के षिक्षक सुरेन्द्र सिदार कहते हैं कि श्री यादव के षिक्षकीय अनुभव का लाभ, छात्राओं के साथ ही षिक्षकों को भी मिल रहा है। वे कहते हैं कि छग में ऐसा व्यक्तित्व शायद होंगे, इसलिए उनके हम लोग आजीवन ऋणी रहेंगे।
वे छात्र-छात्राओं के ज्ञानवर्द्धन के लिए पिछले चार साल से ‘प्रदर्षनी’ लगाते आ रहे हैं। प्रदर्षनी के माध्यम से, क्षेत्र और जिले में उल्लेखनीय योगदान देने वाले ‘व्यक्तित्व’ के बारे में छात्र-छात्राओं को अवगत कराया जाता है। उनका यह कार्य भी प्रषंसनीय है। इसके साथ ही रिटायरमेंट के बाद भी स्कूल में पढ़ाने की उनकी ललक अब भी बाकी है। निष्चित ही उनका यह कर्मपथ, समाज के लिए प्रेरणास्रोत है।