आशीष कुमार ‘अंशु’ ( कोलकाता )
इलाज के अभाव में पति की मौत हुई, तब सुभाषिनी मिस्त्री के पास पूंजी के नाम पर सिर्फ 90 पैसे थे, लेकिन सब्जी बेचने वाली इस महिला ने 23 बरस में पाई-पाई जोड़कर बनवाया अस्पताल।
यह एक आम महिला के बुलंद हौसलों की कहानी है। उसने तय किया था कि जिस अभिशाप ने उसका सुहाग उजाड़ा, वह उसे किसी और का नुकसान करने नहीं देगी, इस संकल्प को 40 बरस हो रहे हैं। कोलकाता के ‘हंसपुकेड़’ में सब्जी बेचने वाली सुभाषिनी मिस्त्री गरीबों के लिए सौ बिस्तरों वाला निःशुल्क अस्पताल चलाती हैं। नाम है - ‘ह्यूमेनिटी हॉस्पिटल’। अनपढ़ सुभाषिनी ने अपने बेटे को पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाया, जो अब अस्पताल का व्यवस्थापक है।
समाज हित में लिए गए संकल्प की कहानी शुरू होती है, वर्ष 1971 से, जब सुभाषिनी के पति, 35 साल के कृषि मजदूर साधन मिस्त्री को इलाज के अभाव में अपनी जान गंवानी पड़ी थी। इतने पैसे ही नहीं थे कि उनका इलाज करवाया जा सके। तब सुभाषिनी ने मुक्त अस्पताल बनवाने का संकल्प लिया था, ताकि किसी को गरीबी के कारण जान गंवानी न पड़े। वे याद करती हैं कि उस समय उनकी उम्र थी, 23 साल। पति छोड़ गए थे चार बच्चे। सबसे बड़ा नौ तथा सबसे छोटा तीन साल का था। उन दिनों वे कोई काम नहीं करती थीं। जमापूंजी के नाम पर थे, सिर्फ 90 पैसे। भातेर पानी ( माड़-चावल का पानी ) के लिए कई बार पड़ोसियों के सामने हाथ पसारना पड़ता था। कई बार उन्होंने घास उबालकर नमक के साथ बच्चों को खिलाई। ऐसे बुरे दिनों में जब वे अस्पताल बनवाने का सपना बतातीं, तो लोग उल पर हंसते थे।
परिवार पालने के लिए उन्होंने दूसरों के घरों में झाडू-पोंछा करना शुरू किया। फिर जब थोड़े पैसे इकट्ठा हुए तो सब्जी की दुकान डाल ली। काम कुछ भी किया, लेकिन थोड़े-थोड़े पैसे अपने अस्पताल के लिए भी जमा करती रहीं। पाई-पाई जोड़ती रही और सपना पलता रहा। इस साधना को चलते करीब 21 बरस हो गए। 1992 में उन्होंने अस्पताल के नाम पर एक बीघा जमीन खरीद ली। 1994 में एक अस्थायी अस्पताल शुरू हो गया। दो हजार वर्गफुट जमीन पर यह मुफ्त अस्पताल प्रारंभ हुआ। अब मदद के हाथ भी बढ़ने लगे। आज अस्पताल के पास अपनी 15 हजार वर्गफुट जमीन, दुमंजिला इमारत, मरीजों के लिए 100 बिस्तर और ऑपरेशन थियेटर हैं। इसकी चर्चा बंगाल भर में है। यहां प्रतिदिन 50-60 मरीज पहुंचते हैं। रविवार के दिन यह संख्या 150 भी हो जाती है। कई बार 50-100 किमी की दूरी से भी मरीज गांव के अस्पताल में पहुंचे हैं। अस्पताल का सारा काम सुभाषिनी के बेटे डॉ. अजॉय मिस्त्री देख रहे है, जिन्हें मां ने डॉक्टर बनाया। अजॉय बताते हैं कि अब वे अस्पताल को दूसरों के दान पर कम से कम निर्भर रखना चाहते हैं।, इसलिए सौ में से 50 बेड में ही निःशुल्क रखने की योजना बनाई गई है, ताकि जरूरतमदों की जरूरत भी पूरी हो और बाकी पचास बिस्तरों से आया धन अस्पताल के रखरखाब में खर्च किया जा सके।
मुझे अहसास है उस दर्द का
मैं जानती हूं कि किसी को खोने का दर्द क्या होता है। मैंने इलाज के अभाव में अपना पति खोया है। इसलिए चाहत हूं कि इलाज न करा पाने की मजबूरी में किसी को अपना प्रियजन न खोना पड़े।
- सुभाषिनी मिस्त्री जी, समाजसेवी।
साभार - दैनिक भास्कर, 12 जून 2011
इलाज के अभाव में पति की मौत हुई, तब सुभाषिनी मिस्त्री के पास पूंजी के नाम पर सिर्फ 90 पैसे थे, लेकिन सब्जी बेचने वाली इस महिला ने 23 बरस में पाई-पाई जोड़कर बनवाया अस्पताल।
यह एक आम महिला के बुलंद हौसलों की कहानी है। उसने तय किया था कि जिस अभिशाप ने उसका सुहाग उजाड़ा, वह उसे किसी और का नुकसान करने नहीं देगी, इस संकल्प को 40 बरस हो रहे हैं। कोलकाता के ‘हंसपुकेड़’ में सब्जी बेचने वाली सुभाषिनी मिस्त्री गरीबों के लिए सौ बिस्तरों वाला निःशुल्क अस्पताल चलाती हैं। नाम है - ‘ह्यूमेनिटी हॉस्पिटल’। अनपढ़ सुभाषिनी ने अपने बेटे को पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाया, जो अब अस्पताल का व्यवस्थापक है।
समाज हित में लिए गए संकल्प की कहानी शुरू होती है, वर्ष 1971 से, जब सुभाषिनी के पति, 35 साल के कृषि मजदूर साधन मिस्त्री को इलाज के अभाव में अपनी जान गंवानी पड़ी थी। इतने पैसे ही नहीं थे कि उनका इलाज करवाया जा सके। तब सुभाषिनी ने मुक्त अस्पताल बनवाने का संकल्प लिया था, ताकि किसी को गरीबी के कारण जान गंवानी न पड़े। वे याद करती हैं कि उस समय उनकी उम्र थी, 23 साल। पति छोड़ गए थे चार बच्चे। सबसे बड़ा नौ तथा सबसे छोटा तीन साल का था। उन दिनों वे कोई काम नहीं करती थीं। जमापूंजी के नाम पर थे, सिर्फ 90 पैसे। भातेर पानी ( माड़-चावल का पानी ) के लिए कई बार पड़ोसियों के सामने हाथ पसारना पड़ता था। कई बार उन्होंने घास उबालकर नमक के साथ बच्चों को खिलाई। ऐसे बुरे दिनों में जब वे अस्पताल बनवाने का सपना बतातीं, तो लोग उल पर हंसते थे।
परिवार पालने के लिए उन्होंने दूसरों के घरों में झाडू-पोंछा करना शुरू किया। फिर जब थोड़े पैसे इकट्ठा हुए तो सब्जी की दुकान डाल ली। काम कुछ भी किया, लेकिन थोड़े-थोड़े पैसे अपने अस्पताल के लिए भी जमा करती रहीं। पाई-पाई जोड़ती रही और सपना पलता रहा। इस साधना को चलते करीब 21 बरस हो गए। 1992 में उन्होंने अस्पताल के नाम पर एक बीघा जमीन खरीद ली। 1994 में एक अस्थायी अस्पताल शुरू हो गया। दो हजार वर्गफुट जमीन पर यह मुफ्त अस्पताल प्रारंभ हुआ। अब मदद के हाथ भी बढ़ने लगे। आज अस्पताल के पास अपनी 15 हजार वर्गफुट जमीन, दुमंजिला इमारत, मरीजों के लिए 100 बिस्तर और ऑपरेशन थियेटर हैं। इसकी चर्चा बंगाल भर में है। यहां प्रतिदिन 50-60 मरीज पहुंचते हैं। रविवार के दिन यह संख्या 150 भी हो जाती है। कई बार 50-100 किमी की दूरी से भी मरीज गांव के अस्पताल में पहुंचे हैं। अस्पताल का सारा काम सुभाषिनी के बेटे डॉ. अजॉय मिस्त्री देख रहे है, जिन्हें मां ने डॉक्टर बनाया। अजॉय बताते हैं कि अब वे अस्पताल को दूसरों के दान पर कम से कम निर्भर रखना चाहते हैं।, इसलिए सौ में से 50 बेड में ही निःशुल्क रखने की योजना बनाई गई है, ताकि जरूरतमदों की जरूरत भी पूरी हो और बाकी पचास बिस्तरों से आया धन अस्पताल के रखरखाब में खर्च किया जा सके।
मुझे अहसास है उस दर्द का
मैं जानती हूं कि किसी को खोने का दर्द क्या होता है। मैंने इलाज के अभाव में अपना पति खोया है। इसलिए चाहत हूं कि इलाज न करा पाने की मजबूरी में किसी को अपना प्रियजन न खोना पड़े।
- सुभाषिनी मिस्त्री जी, समाजसेवी।
साभार - दैनिक भास्कर, 12 जून 2011
1 comment:
रायपुर की नगरमाता बिन्नीबाई की तरह.
Post a Comment