Saturday, September 3, 2011

चौथी पीढ़ी जगा रही शिक्षा की अलख

लक्ष्मणेष्वर मंदिर
पत्थरों की खदान के नाम से प्रसिद्ध लक्ष्मणेश्वर की नगरी खरौद, शिक्षकों की भी खान है। छत्तीसगढ़ की काशी के नाम से विख्यात खरौद, जांजगीर-जिले के पामगढ़ क्षेत्र में स्थित है, जहां पीढ़ी दर पीढ़ी शिक्षक बनने की परिपाटी चली आ रही है। यहां तीन परिवार तो ऐसे हैं, जिनकी दो-दो पीढ़ियों ने दशकों तक ज्ञान की रोशनी बांटी और अब, आगे की दो पीढ़ी अपने पूर्वजों के नक्शे कदम पर चलकर शिक्षा की अलख जगा रही हैं। कहने का मतलब, चौथी पीढ़ी शिक्षा दान के महायज्ञ में लगी हुई हैं। खरौद में एक परिवार ऐसा है, जिनकी तीन पीढ़ियां शिक्षा को समर्पित रहीं हैं और वर्तमान में पिता व दो पुत्र, विद्यार्थियों को जीवन की ककहरा सिखा रहे हैं। यहां अब तक कुल शिक्षकों की संख्या डेढ़ हजार को पार गई है। ऐतिहासिक नगरी खरौद के अधिकांश परिवारों में कोई न कोई शिक्षक हैं या रहे हैं। ऐसे में यहां की भूमि को सरस्वती पुत्रों की जन्मस्थली कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
जिले के पामगढ़ विकासखंड अंतर्गत नगर पंचायत खरौद की आबादी 25 हजार से अधिक है। यह नगरी प्राचीन समय से शिक्षा का केन्द्र रही है। वैसे तो यहां लोगों ने उच्च शिक्षा ग्रहण कर हर क्षेत्र में मुकाम हासिल किया है और वे बड़े-बड़े ओहदों मे ंपदस्थ हुए हैं, किन्तु नगर में शिक्षकीय पेशा का एक अलग ही स्थान है। खरौद के डेढ़ हजार से अधिक लोग अब तक शिक्षक बन गए हैं। इनमें से लगभग लगभग सात सौ शिक्षकों का सेवा कार्य पूर्ण हो चुका है तथा कुछ शिक्षक इस दुनिया को अलविदा कह चुके हैं।
षिक्षा की अलख जगाता यादव परिवार
खरौद के शुकुलपारा निवासी स्व. झुमुकलाल यादव, स्व. बलदाउ यादव एवं तिवारी पारा निवासी स्व. रामचरण आदित्य के परिवार की चौथी पीढ़ी शिक्षकीय कार्य का निर्वहन कर रही हैं, वहीं तिवारी पारा के ही स्व. तांतीराम साहू के परिवार की तीसरी पीढ़ी शिक्षकीय पेशे से जुड़ी हुई हैं। इसके अलावा यहां 50 से अधिक परिवार के सदस्य, दो पीढ़ी तक शिक्षक के रूप में सेवा प्रदान कर रहे हैं। स्व. झुमुकलाल यादव एवं उनके पिता स्व. बृजलाल यादव, शिक्षक थे और उन्हीं के नक्शे कदम पर चलकर, झुमुकलाल यादव के दो पुत्र बद्रीप्रसाद यादव और द्वारिका यादव भी शिक्षा के प्रति समर्पित हैं तथा बद्रीप्रसाद का पुत्र चितरंजन यादव भी शिक्षक हैं, वहीं स्व. बलदाउ यादव तथा उनके पिता स्व. हरलाल यादव शिक्षक थे और अब उनके पुत्र सुरेन्द्र यादव सहित पौत्र संजय यादव शिक्षकीय पेशे से जुड़े हुए हैं।
षिक्षा की अलख जगाता आदित्य परिवार
इसी तरह स्व. रामचरण आदित्य शिक्षक थे और उनके छह में से चार पुत्र रामबगश आदित्य, रामधन आदित्य, रामरतन आदित्य एवं रामप्रताप आदित्य ने शिक्षक के रूप में अपनी सेवाएं दीं। रामभरोस के दोनों पुत्र भरतलाल एवं स्व. नंदकिशोर, रामबगश के दो पुत्रों में एक निर्मल कुमार आदित्य, रामरतन की तीनों पुत्रियों स्व. मधु व स्व. आशा शिक्षक रहीं और सुश्री कल्याणी सेवानिवृत्त हुई हैं। रामप्रताप के दो पुत्र नरेन्द्र कुमार आदित्य एवं महेन्द्र आदित्य शिक्षक हैं। इसके अलावा भरतलाल के दो पुत्र प्रकाश नारायण आदित्य एवं प्रमोद कुमार आदित्य तथा स्व. नंदकिशोर आदित्य की दो पुत्रियां विद्यालता, विनयलता तथा एक पुत्र विनायक आदित्य शिक्षक के रूप में अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं।
षिक्षा की अलख जगाता साहू परिवार
इसी तरह स्व. तांतीराम साहू के पुत्र विनोद कुमार साहू सहित पौत्र रामशरण साहू एवं पवन साहू, तीसरी पीढ़ी के रूप में सेवा दे रहे हैं। इस परिवार से बाद में जुड़ी, रामशरण की पत्नी भी शिक्षक हैं।
खरौद में शिक्षकों की संख्या व उनकी उपलब्धियों के बारे में क्षेत्र के सैकड़ों गांवों में चर्चा होती रहती है, क्योंकि प्राचीन समय से ही यह नगरी शिक्षा का केन्द्र रही है और शिक्षा के बेहतर माहौल के कारण यहां के अधिकांश परिवारों में कोई न कोई शिक्षक है। यहां दूर-दूर से लोग आकर पढ़ते थे औ यही कारण है कि वे आज भी विद्या अध्ययन की इस भूमि को प्रणाम किए बगैर नहीं रह पाते। नगर के बुजुर्ग शिक्षक बताते हैं कि खरौद के शुकुलपारा में सन् 1927 से प्राथमिक शाला संचालित है, वहीं मिडिल स्कूल 1935 में शुरू हुआ। इसके अलावा 1962 में हाईस्कूल खुला तथा नगर में ल़क्ष्मणेश्वर महाविद्यालय की स्थापना इसी सत्र में हुई। आसपास गांवों में दशकों में पहले शिक्षा के लिए एक भी विद्यालय नहीं होने से छात्र, यहां आकर अध्ययन करते थे, जो आज विभिन्न पदों पर पदस्थ हैं। दूसरी ओर खरौद के शिक्षक, आसपास क्षेत्र एवं दूसरे जिलों में भी पदस्थ है। अध्ययन-अध्यापन का माहौल तथा शिक्षकों का, समाज में सम्मानजनक स्थान को देखते हुए लोगों का रूझान भी शिक्षकीय पेशा की ओर ज्यादा है, इसमें आने पीढ़ी भी अपनी पूरी भूमिका निभा रही हैं, यह बात खरौद के लिए बड़ी उपलब्धि है।
इतना तो सभी जानते हैं कि शिक्षा के बिना, सशक्त समाज का निर्माण नहीं किया जा सकता है। शिक्षा की नींव को मजबूत कर ही, हम अपनी भावी पीढ़ी को संस्कारित तथा उन्नति की शिखर पर देख सकते हैं। आज जो विकास हम देख रहे हैं, निश्चित ही वह शिक्षा के प्रसार का ही प्रतिफल है। शिक्षा के विकेन्द्रीकरण के कारण जहां हर वर्ग तक शिक्षा पहुंची है, वहीं इससे लोगों में जागरूकता भी है। शिक्षा, वैसे हर तरह से समाज को प्रभावित करती है और व्यक्ति के व्यक्तित्व को भी बदलने की क्षमता रखती है। यही कारण है कि हमेशा, बेहतर शिक्षा हर जगह वकालत होती है। ऐसे में खरौद के शिक्षकों के योगदान एवं भावी पीढ़ी के इस परिपाटी में जुड़ने को, एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर माना जा सकता है। निश्चित ही, यह सरस्वती पुत्रों की भूमि धन्य है, जहां एक ऐसी परंपरा की होड़ है, जिससे समाज को एक नई दिशा मिलती है।

Friday, July 29, 2011

दिलेरी का एक नाम ‘फूलबाई’, अब तक 7 हजार पोस्टमार्टम !

अक्सर कहा जाता है कि नाम बड़ा होता है या काम और अंततः कर्म की प्रधानता को तवज्जो दी जाती है। ऐसी ही एक महिला है, जिसने नाम के विपरित बड़ा काम किया है, वो भी हिम्मत दिलेरी का। जिस काम को कोई मर्दाना भी करने के पहले हाथ-पांव फुला ले, वहीं यह नारी शक्ति की मिसाल महिला करती हैं, लाशों का पोस्टमार्टम। ऐसा भी माना जा रहा है कि संभवतः यह छत्तीसगढ़ की पहली महिला होगी, जिसने ऐसे हिम्मत के काम को चुना और एक नई मिसाल भी कायम की है।
जी हां, छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले के मालखरौदा में ‘फूलबाई’ नाम की एक महिला है, जो पिछले 25 बरसों से पोस्टमार्टम करती आ रही हैं। हर हफ्ते 3-4 पोस्टमार्टम करती हैं तथा वह सालाना 2 सौ पीएम कर लेती हैं। अनुमान के मुताबिक फूलबाई ने अब तक करीब 7 हजार पोस्टमार्टम कर लिया है।
ब्लाक मुख्यालय मालखरौदा में रहने वाली फूलबाई का नाम सुनने के बाद हर किसी के मन में सहसा ही एक ऐसी महिला की तस्वीर बनेगी, जो फूलों की तरह नाजुक हो, मगर इन बातों को फूलबाई ने धता बताते हुए कोई पुरूष भी जो काम करने से कतराता है, उसे अपनी कांधों पर लेकर निश्चित ही नारी शक्ति को जाग्रत किया है। वैसे भी जब कोई क्षत-विक्षत लाश को देखता है तो उसकी रूह कांप जाती है। किसी भी की रोंगटे खड़े हो जाते हैं, मगर फूलबाई ने हिम्मत के साथ दिलेरी भी दिखाई और पोस्टमार्टम करने लगीं। दूसरी ओर एक सामान्य व्यक्ति भी लाश देखते ही नाक-भौंह सिकोड़ने लगता है। ऐसी स्थिति में फूलबाई का सख्त निर्णय भी तारीफ के काबिल है।
सन् 1985 में काम की तलाश करते हुए फूलबाई, अपने एक बेटे व छह बेटियों के साथ मालखरौदा आई, क्योंकि इतने बड़े परिवार को पालने की जो सबसे बड़ी जिम्मेदारी थी। फूलबाई का पति चरणलाल मजदूर है, जिससे इतनी आमदनी नहीं हो पाती कि इतने बड़े परिवार की आवश्वकताओं की पूर्ति की जा सके। लिहाजा फूलबाई को भी चारदीवारी से बाहर निकलकर काम तलाशनी पड़ी। आर्थिक परेशानियों से जुझने वाली फूलबाई को कुछ दिनों में ही मालखरौदा के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में स्वीपर की नौकरी मिल गई और इस तरह उसकी परिवार की गाड़ी जैसे-तैसे दौड़ने लगी। कुछ दिनों बाद फूलबाई, अस्पताल में पोस्टमार्टम करने वाले स्वीपर ‘महादेव’ का सहयोग करने लगी और कुछ महीनों में उसने भी पीएम करने महारथ हासिल की ली। इस तरह फूलबाई की हिम्मत को देखकर अस्पताल के डाक्टर भी हैरत में पड़ गए और डॉक्टरों ने उससे पोस्टमार्टम का काम लेना शुरू कर दिया।
दिलचस्प बात यह है कि फूलबाई ने हत्या की घटना वाले शव को अकेली ही पहली बार पोस्टमार्टम किया। फूलबाई कहती हैं कि इस दौरान थोड़ी घबराहट हुई, क्योंकि इससे पहले वे पीएम साथ में किया करती थी, मगर इस बार उसे अकेले इस काम को अंजाम तक पहुंचाना पड़ा। वह बताती हैं कि उसकी चार बेटियों का विवाह हो चुका है और परिवार में पति समेत दो बेटियों व एक बेटे के साथ गुजारा करती हैं। देखा जाए तो इतने बड़े परिवार को किसी भी सूरत में एक मजदूर होकर चरणलाल (फूलबाई के पति ) किसी भी सूरत में नहीं चला पाता, मगर नारी शक्ति की प्रतिमूर्ति ‘फूलबाई’ के अथक प्रयास व परिश्रम से परिवार की आर्थिक हालत पहले से बेहतर हो गई और उसने अपने पति का साथ हर राह पर बखूबी दिया। वह पोस्टमार्टम जहां बेधड़क करती हैं, वहीं शव के चीरफाड़ में उसके हाथ भी नहीं कांपते। इस बात को कई तरह से अहम मानी जा सकती है।
फूलबाई बताती हैं कि मालखरौदा व डभरा क्षेत्र के शवों का उसे पोस्टमार्टम करना पड़ता है, इसमें डाक्टरों का भी पूरा सहयोग मिलता है और जैसे ही कोई घटना के बाद अस्पताल में शव आता है, उसके बाद उसकी खोज-खबर शुरू हो जाती है। डॉक्टर भी उसकी ऐसे काम की भुरी-भुरी प्रशंसा करते हैं, क्योंकि फूलबाई को जैसे ही पोस्टमार्टम करने की सूचना मिलती है, वह बिना किसी लाग-लपेट के सहसा चली आती हैं।
मालखरौदा के बीएमओ डा. आरपी कुर्रे कहते हैं कि फूलबाई को पीएम का अच्छा अनुभव हो गया है और वह किसी सुलझे की तरह पोस्टमार्टम करती हैं। इधर समाजशास्त्री भी फूलबाई द्वारा पोस्टमार्टम जैसे कार्य किए जाने को नारी सशक्तीकरण से जोड़कर देखते हैं, उनका कहना है कि निश्चित हीऐसा कोई काम नहीं है, जो आज महिलाएं नहीं कर सकतीं। पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं की समाज में यह भागीदारी काफी मायने रखती है।
अंत में, एक महत्वपूर्ण बात, जिले ही नहीं वरन्, प्रदेश में ‘स्वीपर’ की कमी है और इस समस्या से तब दिक्कतें होती हैं, जब शव पोस्टमार्टम के लिए आते हैं। कई बार देखने में आ चुका है कि महज स्वीपर की कमी या फिर उसके नहीं आने से शव का दूसरे दिन पोस्टमार्टम हो पाता है। इस मामले को भी छत्तीसगढ़ सरकार को संज्ञान में लेना चाहिए और नारी शक्ति के लिए मिसाल बनी ‘फूलबाई’ को सम्मानित भी किया जाना चाहिए। इससे उन महिलाओं का मनोबल बढ़ेगा, जो खुद को दबे-कुचले समझ कर आगे बढ़ने की सोच को मन में रख लेती हैं और बंद कमरे में जिंदगी जी कर बेनाम रूखसत हो जाती हैं।

Monday, June 13, 2011

सब्जी बेचने वाली ने बनवाया ‘इंसानियत का अस्पताल’

आशीष कुमार ‘अंशु’ ( कोलकाता )
इलाज के अभाव में पति की मौत हुई, तब सुभाषिनी मिस्त्री के पास पूंजी के नाम पर सिर्फ 90 पैसे थे, लेकिन सब्जी बेचने वाली इस महिला ने 23 बरस में पाई-पाई जोड़कर बनवाया अस्पताल।
यह एक आम महिला के बुलंद हौसलों की कहानी है। उसने तय किया था कि जिस अभिशाप ने उसका सुहाग उजाड़ा, वह उसे किसी और का नुकसान करने नहीं देगी, इस संकल्प को 40 बरस हो रहे हैं। कोलकाता के ‘हंसपुकेड़’ में सब्जी बेचने वाली सुभाषिनी मिस्त्री गरीबों के लिए सौ बिस्तरों वाला निःशुल्क अस्पताल चलाती हैं। नाम है - ‘ह्यूमेनिटी हॉस्पिटल’। अनपढ़ सुभाषिनी ने अपने बेटे को पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाया, जो अब अस्पताल का व्यवस्थापक है।

समाज हित में लिए गए संकल्प की कहानी शुरू होती है, वर्ष 1971 से, जब सुभाषिनी के पति, 35 साल के कृषि मजदूर साधन मिस्त्री को इलाज के अभाव में अपनी जान गंवानी पड़ी थी। इतने पैसे ही नहीं थे कि उनका इलाज करवाया जा सके। तब सुभाषिनी ने मुक्त अस्पताल बनवाने का संकल्प लिया था, ताकि किसी को गरीबी के कारण जान गंवानी न पड़े। वे याद करती हैं कि उस समय उनकी उम्र थी, 23 साल। पति छोड़ गए थे चार बच्चे। सबसे बड़ा नौ तथा सबसे छोटा तीन साल का था। उन दिनों वे कोई काम नहीं करती थीं। जमापूंजी के नाम पर थे, सिर्फ 90 पैसे। भातेर पानी ( माड़-चावल का पानी ) के लिए कई बार पड़ोसियों के सामने हाथ पसारना पड़ता था। कई बार उन्होंने घास उबालकर नमक के साथ बच्चों को खिलाई। ऐसे बुरे दिनों में जब वे अस्पताल बनवाने का सपना बतातीं, तो लोग उल पर हंसते थे।

परिवार पालने के लिए उन्होंने दूसरों के घरों में झाडू-पोंछा करना शुरू किया। फिर जब थोड़े पैसे इकट्ठा हुए तो सब्जी की दुकान डाल ली। काम कुछ भी किया, लेकिन थोड़े-थोड़े पैसे अपने अस्पताल के लिए भी जमा करती रहीं। पाई-पाई जोड़ती रही और सपना पलता रहा। इस साधना को चलते करीब 21 बरस हो गए। 1992 में उन्होंने अस्पताल के नाम पर एक बीघा जमीन खरीद ली। 1994 में एक अस्थायी अस्पताल शुरू हो गया। दो हजार वर्गफुट जमीन पर यह मुफ्त अस्पताल प्रारंभ हुआ। अब मदद के हाथ भी बढ़ने लगे। आज अस्पताल के पास अपनी 15 हजार वर्गफुट जमीन, दुमंजिला इमारत, मरीजों के लिए 100 बिस्तर और ऑपरेशन थियेटर हैं। इसकी चर्चा बंगाल भर में है। यहां प्रतिदिन 50-60 मरीज पहुंचते हैं। रविवार के दिन यह संख्या 150 भी हो जाती है। कई बार 50-100 किमी की दूरी से भी मरीज गांव के अस्पताल में पहुंचे हैं। अस्पताल का सारा काम सुभाषिनी के बेटे डॉ. अजॉय मिस्त्री देख रहे है, जिन्हें मां ने डॉक्टर बनाया। अजॉय बताते हैं कि अब वे अस्पताल को दूसरों के दान पर कम से कम निर्भर रखना चाहते हैं।, इसलिए सौ में से 50 बेड में ही निःशुल्क रखने की योजना बनाई गई है, ताकि जरूरतमदों की जरूरत भी पूरी हो और बाकी पचास बिस्तरों से आया धन अस्पताल के रखरखाब में खर्च किया जा सके।

मुझे अहसास है उस दर्द का
मैं जानती हूं कि किसी को खोने का दर्द क्या होता है। मैंने इलाज के अभाव में अपना पति खोया है। इसलिए चाहत हूं कि इलाज न करा पाने की मजबूरी में किसी को अपना प्रियजन न खोना पड़े।
- सुभाषिनी मिस्त्री जी, समाजसेवी।

साभार - दैनिक भास्कर, 12 जून 2011

Thursday, June 9, 2011

26 बरसों से पिला रहा प्यासों को पानी

समाज सेवा की दिशा में वैसे तो कई तरह के अनुकरणीय कार्यों की बानगी आए दिन सुनने को मिलती है और उनके कार्यों से समाज के लोगों को निश्चित ही बहुत कुछ सीखने को मिलता है। ऐसी ही मिसाल कायम कर रहे हैं, जिला मुख्यालय जांजगीर से लगे नैला के श्री गोविंद सोनी। वे पिछले 26 बरसों से निःस्वार्थ ढंग से नैला रेलवे स्टेशन में गर्मी के दिनों में यात्रियों को पानी पिलाते रहे हैं। बरसों से जारी उनके जज्बे को देखकर हर कोई दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर हो जाता है, क्योंकि ढलती उम्र के बाद भी उनके चेहरे पर कहीं थकान नजर नहीं आती और वे पूरी उर्जा के साथ समाज सेवा में हर पल तल्लीन नजर आते हैं।
श्री सोनी ने बताया कि बचपन से ही उनके मन में समाज के उत्थान तथा नीचले तबके के लोगों के हितों की दिशा में कुछ कर गुजरने की ललक रही है। शास्त्रों में भी लिखा है कि प्यासों को पानी पिलाना पुण्य का कार्य है। स्टेशन में पानी पीने के लिए प्याउ तो होती हैं, मगर ट्रेन छूटने के डर के कारण अधिकतर यात्री पानी पीने प्याउ तक जाने जहमत नहीं उठाते और प्यासे ही गंतव्य तक चले जाते हैं। ऐसे हालात में उनकी कोशिश रहती है कि प्लेटफार्म पर ट्रेन आने के बाद ज्यादा से ज्यादा यात्रियों को पानी पिला लें और इसके लिए ट्रेन आने के पहले ही तैयारी कर ली जाती हैं।
उन्होंने बताया कि जब वे 30 बरस के थे, तब वे आरएसएस के एक कार्यक्रम में शामिल होने हरियाणा गए थे। वहां उन्होंने देखा कि कैसे लोगों में सेवा भावना है। लोगों को पानी तथा भोजन निःशुल्क दिया जाता है, इस प्रेरणादायी पल को देखने के बाद उनके मन में विचार आया कि क्यों न, लोगों के सूखे कंठों की प्यास बुझाने के काम में लगा जाए। श्री सोनी ने बताया कि गर्मी के तीन महीने वे नैला स्टेशन में पानी पिलाने का कार्य करते हैं, इस दौरान जब टेªेनों का आना नहीं होता, उस समय नैला के ही बस स्टैण्ड में यात्रियों को पानी पिलाया जाता है। उन्होंने यह भी बताया कि स्टेशन में चार प्लेटफार्म हैं और उन्हें प्लेटफार्म नं. 4 में ज्यादा दिक्कतें होती हैं, क्योंकि वहां न तो रेलवे का प्याउ है और न ही, कोई हैण्डपंप। लिहाजा पास के मोहल्ले के हैण्डपंप से पानी लाना पड़ता है। हालांकि इस बात का उन्हें कोई मलाल नहीं रहता। उनका कहना है कि प्यासे यात्रियों को पानी पिलाने से उन्हें आत्मीय खुशी होती है और थकान को कहीं कोई आभाष नहीं होता। वे स्टेशन में मटका भी लाकर रखते हैं और दो बाल्टी के माध्यम से यात्रियों को पानी पिलाने में पूरे समय लगे रहते हैं। प्यासों को पानी पिलाने के यज्ञ में उन्हें परिवार के लोगों का भी पूरा सहयोग मिलता है। श्री सोनी ने बताया कि परिवार के लोगों ने कभी नहीं टोका, बल्कि उनके बेटों ने कई बार स्टेशन पहुंचकर उनका हाथ भी बंटाया। उनकी पत्नी श्रीमती मीरा सोनी भी चाहती है, वह स्टेशन जाकर लोगों को पानी पिलाए, जिससे उन्हें भी पुण्य का लाभ मिले। हालांकि वे अब तक अपने पति के अनुकरणीय कार्यों में सीधे तौर पर हाथ नहीं बंटा सकी हैं, मगर श्री सोनी के मनोबल को बढ़ाने में उनका योगदान होता है।


शिक्षा दान में भी पीछे नहीं
रेलवे स्टेशन में यात्रियों को पानी पिलाने के अलावा श्री गोविंद सोनी शिक्षा दान करने में भी पीछे नहीं है। गर्मी खत्म होते ही शिक्षा सत्र शुरू होने के बाद वे सरस्वती शिशु मंदिर समेत आसपास मोहल्लों के सरकारी स्कूलों के बच्चों को पढ़ाते भी हैं। इस तरह की परिपाटी बरसों से चली आ रही है, यह सब कार्य उनकी दिनचर्या में ही शामिल हो गया है।


...बात निकली तो दूर तलक जाएगी
यात्रियों को पानी पिलाकर मिसाल बने श्री सोनी के उल्लेखनीय कार्यों का प्रभाव भी लोगों के जेहन पड़ा है। इन 26 बरसों में अनेक लोगों ने उनके साथ जाकर यात्रियों को पानी पिलाने का कार्य किए हैं, हालांकि वे अपना यह यज्ञ अनवरत जारी नहीं रख सके। इस बरस नैला के रामावतार अग्रवाल ने भी श्री सोनी के साथ पानी पिलाने का बीड़ा उठाया। उनका कहना है कि वे कई बरसों से देखते आ रहे हैं कि श्री सोनी किस तरह तकलीफ झेलकर भी लोगों की सेवा करते आ रहे हैं। यही बात उन्हें भी स्टेशन तक खींच लाई और वे भी उनके साथ मिलकर यात्रियों की प्यास बुझाने में सहयोग दे रहे हैं। उन्होंने बताया कि उन्हें आत्मसंतुष्टि मिलती है। साथ ही मन को तसल्ली भी है कि जीवन में आएं हैं तो कुछ तो समाज के लिए कर पा रहे हैं।


शास्त्री जी हैं प्रेरणास्त्रोत
श्री सोनी के प्रेरणास्त्रोत पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री हैं। उनके कार्यों से इतने प्रभावित हैं कि वे हर दिन अपने घर में भगवान की तरह उनकी पूजा करते हैं। स्व. शास्त्री की तस्वीर अपने घर के कमरे में लगाकर रखे हुए हैं, जहां बरसों से उनकी पूजा की परिपाटी चली आ रही है। श्री सोनी का कहना है कि जब शास्त्री जी प्रधानमंत्री थे, उस दौरान उन्होंने देश में अनाज की बढ़ती किल्लत को देखते हुए अवाम को हफ्ते में एक दिन उपवास करने का आह्वान किया था, जिसके कारण अनाज की समस्या उस दौरान खत्म हो गई। यही बात श्री सोनी को प्रभावित कर गई और वे उनके अनुयायी बन गए।