Sunday, October 5, 2014

गोविंदराम के मन में समा गए ‘शास्त्री जी’

देष के पूर्व प्रधानमंत्री स्व. लालबहादुर शास्त्री के विचार और कार्य, निष्चित ही नई पीढ़ी के लिए आज भी प्रासंगिक हैं। उनके सद्कार्य को आगे बढ़ाने में अहम योगदान दे रहे हैं, जांजगीर-नैला के गोविंदराम सोनी। वे हर दिन पूर्व प्रधानमंत्री शास्त्री जी की पूजाकर अपनी श्रद्धांजलि प्रकट करते हैं और उनके उपवास के आह्वान को आत्मसात कर देष सेवा की भावना प्रकट की जाती है। यह सिलसिला पिछले 40 साल से जारी है, जिससे समझा जा सकता है कि गोविंदराम के अंतष पर शास्त्री जी के विचारों का किसकदर असर पड़ा है।
दरअसल, सन् 65 में जब भारत का पाकिस्तान से युद्ध हुआ, उस दौरान देष में अनाज की कमी हो गई थी। इस समय पूर्व प्रधानमंत्री शास्त्री जी ने देष के लोगों को हर सोमवार को उपवास करने का आह्वान किया, ताकि देष में अन्न की बचत हो और जिन लोगों को भोजन नहीं मिल रहा था, उन्हें भोजन मिल सके। पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी की यही बात, समाजसेवी गोविंदराम सोनी के मन में समा गई और उन्होंने भी उनके विचारों को समाज के हर वर्ग के लोगों को आगे बढ़ाने की दिषा में कार्य करना शुरू कर दिया।
जांजगीर-नैला में समाजसेवी गोविंदराम की समाजसेवा का बखान करना, एक तरह से सूरज को दीपक दिखाने जैसा ही होगा। वे कभी गरीब बच्चों को पढ़ाने में में रत नजर आते हैं तो गर्मी के दिनों में रेलवे स्टेषन में प्यासे यात्रियों को पानी पिलाकर उनकी प्यास बुझाने में रमे दिखते हैं। रेलवे स्टेषन में प्यासे यात्रियों को पानी पिलाने का सिलसिला 30 बरसों से चला आ रहा है। प्यासे यात्रियों को पेयजल पिलाने के दौरान वे कई बार स्टेषन में बेहोष हो चुके हैं। अनके बार तबियत भी बिगड़ चुकी है, फिर भी समाजसेवा की दिषा में उनके कदम थम नहीं रहे हैं। जांजगीर-नैला में जब भी कोई समाजसेवा का कार्य होता है तो वहां अपनी सहभागिता निभाने में गोविंदराम पीछे नहीं होते, बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री शास्त्री जी की समाजसेवा के लक्ष्य को लेकर हमेषा लोगों को खुद ही आगे बढ़कर सहयोग करते हैं।
देष के विकास और उत्थान में पूर्व शास्त्री के कार्यों को कभी भुलाया नहीं जा सकता। उनके सद्कार्य को आत्मसात कर जिस तरह गोविंदराम सोनी भी उनके नक्षे-कदम पर चल रहे हैं, वह बताने के लिए काफी है कि शास्त्री के सद्कार्य की छाप हमेषा कायम रहेगी। सन् 65 से जो उन्होंने शास्त्री जी के विचारों को अपने मन में रमाया है, वह अनवरत आज भी जारी है। निरंतर आज भी वे हर दिन पूर्व प्रधानमंत्री शास्त्री की पूजा में रत नजर आते हैं और उनके आह्वान को आज भी आत्मसात करके रखे हुए हैं।
समाजसेवी गोंविदराम सोनी की दिनचर्या में शामिल है कि वे पूर्व प्रधानमंत्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री के तैलचित्र के समक्ष पूजा कर दिन की शुरूआत करते हैं। भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद देष में अन्न की कमी हुई और शास्त्री ने जिस तरह देषवासियों से हर सोमवार को उपवास का आह्वान किया, उसी तरह लोगों ने भी उनके आह्वान को अपने जीवन में उतार लिया।
उस समय तो देष की गरीबी और भुखमरी से निपट लिया गया, लेकिन आज देष में बनिस्मत उससे कम पर, उसी तरह के हालात हैं। देष के लाखों लोगों को आज भी भर पेट भोजन नसीब नहीं होता। ऐसे में पूर्व प्रधानमंत्री शास्त्री के ‘उपवास’ के आह्वान को जगाने की जरूरत बनी हुई है, ताकि जिन गरीबों के भूखे पेट तक अन्न का दाना नहीं पहुंच रहा है, उनका भी पेट भर सके। इस दिषा में समाजसेवी गोविंदराम चाहते हैं कि शास्त्री जी के आह्वान को एक बार फिर आत्मसात किया जाए, ताकि किसी गरीब को भूखे पेट न रहना पड़े। उनका यह भी कहना है कि शास्त्री जी के कहे अनुसार जीवन जीएं और उपवास करना चाहिए। वे एक सच्चे प्रधानमंत्री थे। उनके मार्गदर्षन में चलने से देष में अन्न की बचत होगी और कुपोषण दूर होगा। साथ ही शरीर के लिए भी अच्छा है। उपवास करने से शक्ति मिलती है।
खास बात यह है कि समाजसेवी गोविंदराम, आरएसएस के बचपन से स्वयंसेवक है, मगर उन्हें पूर्व प्रधानमंत्री शास्त्री की देष के प्रति किए किए कार्य इस कदर भा गए कि वे आज हर दिन उनका ‘नाम’ रमते हैं। वे कहते हैं कि पार्टी कोई भी हो, सभी को मिलकर देषसेवा करना चाहिए और देष के विकास में दिषा में अग्रसर करना चाहिए।
 समाजसेवी गोविंदराम के जनसेवा के कार्यों से उनके बेटे प्रदीप सोनी भी अभिभूत नजर आते हैं। उनके मुताबिक, बचपन से ही वे अपने पिता पूर्व प्रधानमंत्री शास्त्री की पूजा करते आते देख रहे हैं और उनके विचारों के बारे में सुनते आ रहे हैं। उन्हें अच्छा लगता है कि पूर्व प्रधानमंत्री शास्त्री जी के प्रति अटूट सम्मान है। उनके पिता हमेषा सीख देते थे कि हर व्यक्ति को समाज और देष के विकास में योगदान देते हुए हमेषा जागरूक रहना चाहिए। ‘उपवास’ भी देष सेवा में बड़ा योगदान माना जा सकता है, क्योकि देष में अन्न की बचत होती है।
एक तरफ देष के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, देष को विकास की डगर में ऊंचाई पर ले जाने, देषवासियों से हर मुद्दे पर जुड़कर कार्य करने आह्वान कर रहे हैं, ऐसे में पूर्व प्रधानमंत्री शास्त्री जी के ‘उपवास’ के आह्वान को भी देषहित में करोड़ों भारतीयों से जोड़ने का प्रयास होना चाहिए। ऐसे में ‘उपवास’ से देष में एक दिन में ही बड़े पैमाने पर अन्न की बचत होगी और निष्चित ही देष को ऊंचाई पर ले जाने की दिषा में यह पहल काफी मददगार साबित हो सकती है, क्योंकि हिन्दुस्तान जैसे विषाल देष में गरीबी एक बड़ी समस्या है। देष की सबसे बड़ी समस्या से निपटने ‘उपवास’ का आह्वान, हिन्दुस्तान को दुनिया के नक्षे में पहुंचाने में बड़ा कदम साबित होगा।

Friday, July 11, 2014

दूधमुंहे बच्चों की अनोखी ‘पाठषाला’

बच्चों को षिक्षा देने के लिए देष भर में लाखों पाठषाला संचालित कराई जा रही हैं, लेकिन दूधमुंहे बच्चों की एक ‘अनोखी पाठषाला’ भी चल रही है, जहां बच्चों को संस्कारित षिक्षा देने के साथ ही, देषभक्ति गीतों से भी रूबरू कराया जाता है। संभवतः, यह देष का ऐसा पहला मामला होगा। जी हां, जांजगीर-चांपा जिले के नवागढ़ इलाके के गोधना गांव में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत कार्य के दौरान, ऐसा ही नजारा हर दिन देखने को मिलता है, जब दूधमुंहे बच्चों की ‘पाठषाला’ लगती है और उन्हें पढ़ाने पहुंचती हैं, अनपढ़ ‘सरजू बाई’। 60 साल की सरजू बाई, भले ही अषिक्षित हांे, लेकिन खुद के प्रयास से उन्होंने जो तामिल हासिल की है, उससे बच्चों का भविष्य जरूर निखर रहा है।
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना यानी मनरेगा के तहत होने वाले कार्य के दौरान, मजदूरों के 5 से अधिक बच्चों के लालन-पालन के लिए एक महिला को काम पर रखने का प्रावधान है। इसी के तहत पिछले पांच साल से ग्राम पंचायत गोधना में 60 साल की ‘सरजू बाई’ काम कर रही है। वैसे तो उनकी जिम्मेदारी कार्य के समय बच्चों की देखभाल की है, लेकिन वह अपने ज्ञान का प्रसार करने की चाहत रखते हुए बच्चों की पढ़ाई भी कराती है, जिस पर मजदूर भी गदगद नजर आते हैं। एक तो बच्चों की पढ़ाई हो जाती है, वहीं उनका मनोरंजन भी हो जाता है। लिहाजा, मजदूरों को काम के दौरान कोई समस्या नहीं होती।
सरजू बाई कहती हैं कि वह तीन महीने ही स्कूल गई थी, परंतु बाद में किसी कारणवष पढ़ाई छोड़नी पड़ी। जिसका उसे अब भी मलाल है। पढ़ाई की इच्छा शुरू से रही है, जिसके कारण वह गिनती, पहाड़ा तथा देषभक्ति गीतों को पढ़ती रहती थी। दिलचस्प बात यह है कि वह एक कक्षा भी नहीं पढ़ी है, लेकिन उन्हें ‘अक्षर’ के साथ ‘अंकों’ की भी पहचान और ज्ञान है, जिसके बाद वह आगे बढ़ती गईं और आज वह ढलती उम्र में, कहीं न कहीं षिक्षा की अलख जगाने वाली ‘खान’ बन गई हैं। वह कहती हैं, जब भी मन करता है, ‘देषभक्ति गीत’ गुनगुनाती रहती हैं। इस तरह एक के बाद एक, सब याद हो गए।
वह कहती है कि कुछ साल पहले तक उसे कई मुष्किलों का सामना करना पड़ा। उसे भीख तक मांगना पड़ा। बरसों तक गरीबी झेलनी पड़ी। मनरेगा में काम मिलने से उसे काफी लाभ हुआ है और उसकी आर्थिक हालात सुधरे हैं। मनरेगा में काम मिलने से उसके चेहरे पर संतुष्टि साफ नजर आती है।
निष्चित ही, सरजू बाई ने एक मिसाल कायम की है, क्योंकि अच्छी षिक्षा के बाद भी कई लोगों की पढ़ाई से मोह भंग हो जाता है, वहीं अनपढ़ होने के बाद भी वह पढ़ाई के प्रति अपनी जिज्ञासा बनाई हुई है, जिसकी जितनी भी तारीफ की जाए, कम ही नजर आती है। वह यह भी कहती है, दूधमुंहे बच्चों की देखरेख के साथ, स्कूल जाने से पहले कुछ पढ़ाई हो जाए तो, इसके बाद बच्चों को ही भविष्य में लाभ होगा।
मनरेगा के कार्यस्थल पर सरजू बाई, राष्ट्रगान गाती है और बच्चे उसे दोहराते हैं। यही हाल, गिनती व पहाड़ा का भी है। कई घंटों तक चलने वाले कार्य के दौरान यही सिलसिला चलते रहता है। जब वह राष्ट्रगान ‘जन-गण मन’ और ‘भारत देष हमारा, प्राणों से प्यारा’ गाती हैं तो बच्चे भी पूरे उत्साह से गाते नजर आते हैं। सरजू बाई, वंदे मातरम्, भारत माता की जय, जय हिन्द-जय भारत का जयघोष करती है तो बच्चे भी उस जयघोष को दोहराते हैं। इस तरह ‘सरजू बाई’ अनेक गाना गाकर भी सुनाती हैं, जिससे हर कोई भाव-विभोर हुए बिना नहीं रहता।
सरजू बाई, हिन्दी वर्णमाला, पहाड़ा और गिनती को बेहतर तरीके से पढ़ लेती हैं। उसका उच्चारण भी काफी अच्छा है। यही वजह है कि मनरेगा के कार्यस्थल पर काम करने वाले मजदूरों के बच्चों को सरजू बाई की बोली और भाषा में समझ में भी आती है। सरजू बाई को वर्णमाला ‘कखग’ से लेकर गिनती और पहाड़ा का अच्छा ज्ञान है। यह सब उसने किसी स्कूल में नहीं सीखा, बल्कि अपनी कोषिषों से उसने यह षिक्षा हासिल की है। यही सबसे बड़ी वजह है कि महिला होने के बाद भी, गोधना गांव ही नहीं, बल्कि आसपास कई गांवों में सरजू बाई की एक पहचान है।
इतना ही नहीं, बच्चों का कई मनमोहक गीतों से मनोरंजन कराती हैं। ‘हाथी देखो बड़ा जानवर, लंबी सूंड हिलाती है’, ‘हरे रंग का है यह तोता’, ‘रेल चली रे रेल, बड़े मजे का खेल’ जैसे मनोरंजक गीतों को भी गाती हैं और फिर बच्चे भी मग्न नजर आते हैं। मजदरू मां-बाप की भी याद, बच्चों को इस दौरान नहीं रहती। बच्चे बस, सरजू बाई की पढ़ाई व सीख की बातों में ही खोए हुए नजर आते हैं।
सरजू बाई, रानी लक्ष्मी बाई द्वारा फिरंगियों के खिलाफ की गई लड़ाई को भी गीतों के माध्यम से बखान करती हैं और कहती हैं, ‘दूर हटो फिरंगियों, आती है झांसी की रानी’।
सरजू बाई, हनुमान चालीसा का पाठ भी बेहतर तरीके से करती हैं और यह उसका रोज का रूटिन है। दिन भी सरजू बाई, धर्म-आस्था के गीतों के साथ रमी नजर आती है।
मनरेगा के कार्य स्थल पर दूधमुंहे बच्चों को संभालने के साथ उनकी पढ़ाई कराने की बात से, मजदूर भी खुष नजर आते हैं और उनकी तारीफ किए बगैर नहीं रह पाते। मजदूर खेमलाल और मोहन लाल कहते हैं कि बच्चों को कोई परेषानी नहीं होती, उनका भी काम अच्छे से होता है। वे कहते हैं कि बच्चों की देखभाल के साथ कई तरह की षिक्षा, सरजू बाई बच्चों को देती है, जिससे कहीं न कहीं उनके बच्चों को बचपन में ही अच्छी षिक्षा मिल रही है।
ऐसा ही कुछ कहना है कि गोधना गांव के रोजगार सहायक सुरेष कुर्रें का भी। छोटे-छोटे बच्चों को अच्छे से संभालती है। बढ़िया काम करती है, बच्चों को सीखाती-पढ़ाती है। रोजगार सहायक के मुताबिक, वह बेहतर तरीके से करती है। मनरेगा में काम मिलने से सरजू बाई की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ है, क्योंकि वह पिछले चार-पांच साल से काम कर रही है।
मनरेगा के जिला कार्यक्रम अधिकारी योगेष्वर दीवान का कहना है कि कम पढ़े-लिखे होने के बाद भी सरजू बाई का प्रयास, निःसंदेह सराहनीय है। वह कार्यस्थल पर बच्चों को अच्छी षिक्षा देती है, जिसकी जितनी प्रषंसा की जाए, कम ही होगी।
मजदरू परिवार के दूधमुंहे बच्चों को निष्चित ही ऐसी तालिम कम जगह ही मिलती होंगी। ऐसे में ‘सरजू बाई’ द्वारा जिस तरह बच्चों को ‘षिक्षा दान’ दिया जा रहा है, वह अनोखी मिसाल ही साबित हो रहा है, क्योंकि दूधमुंहे बच्चों की ऐसी अनोखी ‘पाठषाला’, शायद ही किसी ने देखी होगी और न ही सुनी होगी। ऐसे में षिक्षा की नींव को मजबूत करने वाली अनपढ़ ‘सरजू बाई’ के योगदान को, भुलाया नहीं जा सकता।

Thursday, July 3, 2014

जीवन भर ‘विद्यादान’ का महासंकल्प

जीवन में कर गुजरने की तमन्ना तो सभी की होती है, लेकिन बहुत कम होते हैं, जो समाज उत्थान की दिषा में अपना योगदान दे पाते हैं। जिले के खरौद में ऐसे ही व्यक्तित्व हैं, सेवानिवृत्त षिक्षक एमएल यादव, जिन्होंने जीवन भर ‘विद्यादान’ का महासंकल्प लिया है और अपने रिटायरमेंट के 9 साल बाद भी सरकारी स्कूल में निःषुल्क पढ़ा रहे हैं। षिक्षा के प्रति उनका इसकदर लगाव, निःसंदेह समाज को संदेष देता है और बताता है कि जीवन में षिक्षा क्यों जरूरी है और उसका कितना महत्व है।
सतत अध्ययनशील एवं मिलनसार व्यक्तित्व के धनी श्री यादव सेवानिवृत्त के बाद भी स्कूल में निःषुल्क शिक्षा प्रदान कर छात्र-छात्राओं के भविष्य को रौशन करने जुटे हैं। एमए राजनीति और इतिहास में शिक्षा प्राप्त 72 वर्षीय श्री यादव, 28 फरवरी 2005 को खरौद स्थित शासकीय उच्चतर माध्यमिक शाला के मिडिल विभाग से प्रधानपाठक के पद से सेवानिवृत्त हुए तथा उसी समय से ही वहां निःशुल्क सेवाएं शुरू कर दी।
श्री यादव ने ‘षिक्षादान’ को महासंकल्प के तौर पर ग्रहण किया है और वर्तमान में श्री यादव, कन्या पूर्व माध्यमिक शाला में निःषुल्क शिक्षा प्रदान कर छात्र-छात्राओं को विद्यादान कर रहे हैं। इस तरह सेवानिवृत्ति के बाद भी उनका निरंतर 9 बरस से स्कूल से लगाम कायम है। श्री यादव की निःशुल्क विद्यादान की चर्चा नगर सहित क्षेत्र भर में है। लोगों में उनकी पहचान एक कर्मठ तथा मृदुभाषी शिक्षक के रूप में है। उन्होंने 2005 में रिटायरमेंट के बाद सबसे पहले सुकुलपारा के मिडिल स्कूल में निःषुल्क पढ़ाना शुरू किया, जहां से वे खुद रिटायर हुए थे। उस दौरान षिक्षकों की भी कमी थी। वे बताते हैं कि रिटायमेंट के बाद उनकी मंषा थी कि वे किसी न किसी विद्यालय में पढ़ाएंगे।
 रिटायर षिक्षक एमएल यादव का स्वास्थ्य, उम्र के लिहाज से खराब होते जा रहा है। फिर भी वे स्कूल में निःषुल्क पढ़ाने से पीछे नहीं हट रहे हैं। अभी वे कन्या मिडिल स्कूल में पढ़ा रहे हैं, जहां वे 2007 से पढ़ा रहे हैं। स्वास्थ्यगत बाधा के बाद भी वे विद्यादान करने आगे आए हैं, जिसकी जितनी तारीफ की जाए, कम ही है।
उन्होंने नगर सहित क्षेत्र के छात्र-छात्राओं को साहित्य की दिशा में लाभान्वित करने अपनी पुत्री स्व. मंजूलता की स्मृति में ‘वाचनालय’ सन् 1997 में प्रारंभ किया था, जहां साहित्य के ज्ञान पिपासु अध्ययन करते रहे हैं। वर्तमान में जगह के अभाव के कारण उस वाचनालय का संचालन नहीं हो रहा है, मगर श्री यादव ने वाचनालय की पुस्तकों और अध्ययन सामग्रियों को अपने घर के एक कमरे में स्थान दिया है, जहां समयानुसार कई लोग वहां जाकर अध्ययन करते हैं।
वे कहते है कि विद्यादान पुण्य का कार्य है और वे जब तक जीवित रहेंगे, तब तक उनका यह संकल्प जारी रहेगा। अब तक किसी भी सम्मान या पुरस्कार से वंचित श्री यादव का कहना है कि वे कर्म पर विश्वास रखते हैं और उनके किसी प्रयास से समाज में होने वाले सकारात्मक परिवर्तन व आसपास के माहौल में सुधार ही, उनके लिए बड़ा पुरस्कार है। वे कहते हैं कि छात्र-छात्राओं द्वारा प्राप्त होने वाला ‘सम्मान’ सबसे बडा पुरस्कार है, जिसके सामने सभी पुरस्कार का महत्व शून्य है।
कन्या मिडिल स्कूल में बालिकाओं को पढ़ाने पर श्री यादव खुद को धन्य मानते हैं। बेटियों को पढ़ाने से उनके मन को संतोष मिलता है। वे इसी को अपना पुरस्कार मानकर चलते हैं।
श्री यादव, छात्र-छात्राओं की भलाई के लिए हमेषा आगे रहते आए हैं। षिक्षकीय जीवन में भी वे गरीब बच्चों को पुस्तकें खरीदकर देते थे। कभी जरूरत पड़ी तो परीक्षा के अलावा अन्य फीस भी भर देते। वे चाहते थे कि हर परिस्थति के बाद भी बच्चे पढ़ाई करे, किसी कारण से बच्चों की पढ़ाई में बाधा उत्पन्न न हो। वे छात्र-छात्राओं को षिक्षा के महत्व से अवगत कराते और उन लोगों के संस्मरण बताते, जिन्होंने षिक्षा समेत समाज के विकास में उल्लेखनीय योगदान दिया है। उनका ऐसा प्रयास आज भी जारी है।
वे वर्तमान षिक्षा के हालात से भी हतप्रभ हैं। वे कहते हैं कि षिक्षा के क्षेत्र में गिरावट आती जा रही है। षिक्षकों को बुद्धिजीवी माना जाता है। कुछ षिक्षकों में स्वार्थ की भावना नजर आती है, जो षिक्षा के विकास में घातक है। वे मानते हैं कि षिक्षकों को जो पारिश्रमिक मिलता है, उसके अनुरूप बच्चों को जो षिक्षा मिलनी चाहिए, वह नहीं मिलती।
खरौद के मिडिल कन्या स्कूल में पिछले 7 साल से पढ़ा रहे है। उनकी पढ़ाई के बेहतर तरीके से छात्राएं भी खुष नजर आती हैं। वे कहती हैं कि यादव गुरूजी अच्छे ढंग से पढ़ाते हैं। साथ ही पढ़ाई के दौरान दी गई जानकारी याद रहती है।
इतना ही नहीं, श्री यादव की लगन और विद्यादान के प्रति कर्मठ भावना से स्कूल के षिक्षक और षिक्षिकाएं भी गदगद नजर आते हैं। कई षिक्षकों को तो श्री यादव ने ही पढ़ाया है, इसलिए षिक्षकों के मन में अपने गुरूजी के प्रति श्रेष्ठ भावना नजर आती है। स्कूल के षिक्षक सुरेन्द्र सिदार कहते हैं कि श्री यादव के षिक्षकीय अनुभव का लाभ, छात्राओं के साथ ही षिक्षकों को भी मिल रहा है। वे कहते हैं कि छग में ऐसा व्यक्तित्व शायद होंगे, इसलिए उनके हम लोग आजीवन ऋणी रहेंगे।
वे छात्र-छात्राओं के ज्ञानवर्द्धन के लिए पिछले चार साल से ‘प्रदर्षनी’ लगाते आ रहे हैं। प्रदर्षनी के माध्यम से, क्षेत्र और जिले में उल्लेखनीय योगदान देने वाले ‘व्यक्तित्व’ के बारे में छात्र-छात्राओं को अवगत कराया जाता है। उनका यह कार्य भी प्रषंसनीय है। इसके साथ ही रिटायरमेंट के बाद भी स्कूल में पढ़ाने की उनकी ललक अब भी बाकी है। निष्चित ही उनका यह कर्मपथ, समाज के लिए प्रेरणास्रोत है।

Sunday, June 15, 2014

तीसरी पास ‘कोमल’ ने रच दिया इतिहास

जिले के पामगढ विधानसभा क्षेत्र के बेल्हा गांव के कोमल प्रसाद कुर्मी ने हिन्दी में रचित श्रीमद् भागवत कथा को ‘छत्तीसगढी’ में अनुवाद करके छत्तीसगढी साहित्य के क्षेत्र में एक नये अध्याय की शुरूआत की है। निष्चित ही छत्तीसगढ़ी साहित्य के लिहाज से उनके प्रयास की सर्वत्र सराहना हो रही है, लेकिन आर्थिक अभाव के चलते कोमल प्रसाद द्वारा लिखित ‘छत्तीसगढी़ श्रीमद् भागवत कथा’ पुस्तक का प्रकाषन बेहतर तरीके से नहीं हो पाया है। बस, इसी बात का मलाल कोमल प्रसाद को अब भी है।
महज तीसरी कक्षा तक पढे़ 71 वर्षीय कोमल प्रसाद कुर्मी ने आर्थिक विपत्रता के बाद भी, न केवल श्रीमद् भागवत कथा को छत्तीसगढ़ी में अनुवाद किया है, वरन उन्होंने इसका 588 पृष्ठ के ‘पुस्तकाकार’ प्रकाशन भी कराया है। हालांकि, धन के अभाव में छपाई में कई खामी है, मगर इससे उनके प्रयास को कम करके नहीं आंका जा सकता। वे बताते हैं कि श्रीमद् भागवत में ऋषि सुखदेवमुनि, राजा परिक्षित को लगातार 168 घंटे तक कथा का श्रवण कराते हैं, जिसका पूर्ण वर्णन उनकी अनुवादित छत्तीसगढ़ी पुस्तक में किया गया है।
हिन्दी की श्रीमद् भागवत कथा की तरह ही छत्तीसगढी में भी अनुवादित श्रीमद् भागवत कथा में 12 स्कंध एवं 339 अध्याय है। कोमल प्रसाद ने छत्तीसगढी श्रीमद भागवत कथा के अलावा महाभारत, रामायण, ‘शिवरीनारायण बाजार से’ ( शिवरीनारायण के संदर्भ में ), सच्चाई की दुनिया, गांधीजी की पूजा आदि भी छत्तीसगढी में लिखी है, जो अर्थाभाव के चलते अप्रकाशित है।
उन्होंने छत्तीसगढी में श्रीमद् भागवत के अनुवाद के लिए हिन्दी श्रीमद भागवत तथा सुखसागर से शब्दों का चयन किया है। अहम बात यह भी है कि वे प्रतिदिन सुबह-शाम भागवत और रामायण का वाचन करते हैं, जिससे उन्हें आत्मीय शांति मिलती है। इस दौरान कथा श्रवण के लिए गांव के कुछ लोग भी पहुंचते हैं और वे भी कोमल प्रसाद की तारीफ किए बगैर नहीं थकते।
यहां यह बताना जरूरी है कि आज से 19 वर्ष पूर्व सन् 1995 के दौरान कॉपी में सरसरी तौर पर ‘छत्तीसगढ़ी श्रीमद् भागवत कथा’ लिखकर शिवरीनारायण स्थित पूजा प्रिटिंग प्रेस में इसका प्रकाशन प्रारंभ कराने दिया और आर्थिक अभाव के चलते कई वर्षों बाद पुस्तक का प्रकाशन पूर्ण हो सका है। प्रकाशन के आरंभ से लेकर, इसके अंतिम रूप से प्रकाशन होने के बीच की अवधि में कोमल प्रसाद को काफी आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ा।
लेखक कोमल प्रसाद कुर्मी को अपनी पुस्तक प्रकाषन के लिए रोजाना 5 किमी दूरी तक कर षिवरीनारायण जाना पड़ता था, जहां वे पांडुलिपि को कम्प्यूटर में टाइप कराते। 2002 में यह कार्य पूर्ण हुआ, लेकिन टाइपिंग में हुई गलतियों को सुधारने में दो-तीन साल और बीत गए।
इस छत्तीसगढ़ी श्रीमद् भागवत कथा के प्रकाशन में करीब 9 वर्ष लग गये। हालांकि, उन्होंने कभी इससे हार नहीं मानी और मन में ठान लिया कि चाहे कुछ भी हो, वे पुस्तक का प्रकाशन अवश्य ही करायेंगे। उनके इसी साहस का ही परिणाम है कि आज छत्तीसगढ़ी में श्रीमद भागवत कथा का प्रकाषन ‘पुस्तक’ रूप में संभव हो सका है। यह और बात है कि धन के अभाव के कारण न तो छपाई अच्छी हो पाई है और न ही, वे इसकी ज्यादा प्रति प्रकाशित करा पाये हैं। कोमल प्रसाद को इस बात का मलाल भी है, मगर वे अपनी गरीबी को अपनी किस्मत समझ, मन मसोसकर रह जाते हैं।
कोमल प्रसाद, छत्तीसगढी में विभिन्न धार्मिक रचनाओं के लिखने की प्रेरणा के पीछे भगवान की भक्ति को प्रमुख कारण मानते हैं। अपनी पुस्तक का बेहतर प्रकाषन को लेकर अब भी विष्वास कायम है और इसी कामना के साथ उनमें एक आस अब भी बाकी है। वे कहते हैं कि छत्तीसगढ़ी भागवत की पुस्तक छप जाती तो वे भी ‘नाम’ कमा लेते।
कोमल प्रसाद के पूरे परिवार में पत्नी, 4 पुत्रों एवं पुत्रवधूओं सहित 21 सदस्य हैं, जिसके कारण उनके समक्ष आर्थिक संकट हमेशा बांहें फैलाये खड़ा रहता है। ऐसा नहीं है कि परिवार के लोगों का सहयोग नहीं रहता, लेकिन कोमल प्रसाद का परिवार, आर्थिक तौर पर इतना संबल नहीं है कि कोमल प्रसाद की तमन्ना पूरी कर सके।
इस कठिन समय में भी परिवार के सभी सदस्यों का पूर्ण सहयोग, पुस्तक के प्रकाशन में प्राप्त होता रहा है। कोमल प्रसाद के बेटे हरिषंकर का कहना है कि वे लोग बस इतना चाहते हैं कि कैसे भी करके उनके पिता द्वारा छत्तीसगढ़ी में अनुवादित पुस्तक का प्रकाषन हो जाए। शासन से उन्हें मदद की आस भी है।
जब हमने कोमल प्रसाद के हालात की जानकारी पामगढ़ विधायक अंबेष जांगड़े के समक्ष रखी तो उन्होंने कोमल प्रसाद की सराहना करते हुए कहा कि उनकी ओर से जो भी मदद की जरूरत होगी, वे करेंगे। यदि शासन स्तर की बात होगी तो वे पुस्तक के अच्छा प्रकाषन के लिए मुख्यमंत्री तक भी बात पहुंचाएंगे।
कोमल प्रसाद कुर्मी ने 19 बरसों की अथक मेहनत एवं लगन से छत्तीसगढी साहित्य और संस्कृति में एक नवीन अध्याय जोडने की शुरूआत की है। अब, राज्य शासन के संस्कृति मंत्रालय द्वारा कोमल प्रसाद के प्रोत्साहन हेतु समुचित पहल का इंतजार है, ताकि पुस्तक का बेहतर प्रकाषन की जो इच्छा, कोमल प्रसाद की है, वह पूरी हो सके।

Saturday, June 14, 2014

अंधत्व के बाद भी जीवन की दौड़ में वह आगे

जिले के खरौदनगर में एक ऐसा शख्स है, जो दोनों आंखों से नेत्रहीन होने के बाद भी जिंदगी की दौड़ में, औरों से कहीं आगे है। इब्राहिम हुसैन नाम का शख्स, खरौद के बस स्टेण्ड के पास अण्डे की दुकान चलाता है और इसी से अपने परिवार का पेट पालता है। अहम बात यह है कि उसकी पत्नी भी एक पैर से विकलांग है। ऐसे में पत्नी समेत दो बच्चों के रहन-बसन के लिए उसे काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है। यह कहने में अतिषयोक्ति नहीं होगी कि इब्राहिम ने उन लोगों के लिए मिसाल पेष की है, जो थोड़ी भी मुष्किलें आने पर ‘जिंदगी’ से हार मान जाते हैं।
जिला मुख्यालय जांजगीर से 35 किमी दूर नगर पंचायत खरौद है, जहां सुकुल पारा में अपने परिवार के साथ इब्राहिम हुसैन रहता है। इब्राहिम की जिंदगी, जन्म से ही बदरंग नहीं थी, मगर करीब 8-10 साल की उम्र में उसकी आंखें किसी बीमारी की चपेट में आ गई। गरीबी परिस्थति के बावजूद, आंखों का इलाज भी कराया गया, लेकिन अंततः उसकी दोनों आंखों की रोषनी चली गई।
इब्राहिम की खासियत यह है कि वह दोनों आंखों से नेत्रहीन होने के बाद भी अण्डे की दुकान में किसी की मदद नहीं लेता। प्याज और टमाटर काटने से लेकर, स्टोव चालू करने से लेकर और फिर अण्डे की आमलेट बनाने तक, इस दौरान उसे कोई परेषानी नहीं होती। यहां तक कि वह चाकू को खुद ही तेज कर लेता है।
इब्राहिम को देखकर पहली नजर में किसी को समझ में नहीं आता कि वह नेत्रहीन है। सामान्य व्यक्ति की तरह ही वह जिस अंदाज में सभी सामग्री डालने के बाद, स्टोव में आमलेट को पकाता है, इसे देखकर हर कोई हैरत में पड़ जाता है और फिर इब्राहिम की तारीफ किए बगैर नहीं रहता।

इब्राहिम की एक और खास खूबी है, वह ग्राहकों से मिले नोट या सिक्के को छूकर पहचान लेता है कि वह कितने का नोट या फिर सिक्का है। इब्राहिम कहता है कि वह 100 रूपये तक का ही नोट लेता है, क्योंकि वह निरंतर अभ्यास से नोटों को पहचानना सीख गया है। 5 सौ रूपये के नोट देने पर वह ग्राहकों से पूछ लेता है और फिर चिल्हर की दिक्कतों के चलते 5 सौ रूपये का नोट नहीं लेता।
इतना ही नहीं, अण्डे की दुकान को वह अकेले संभालता है और शाम के समय ही दुकान लगाता है। दुकान में वह 4 से 5 घंटे बिताता है। इस दौरान दर्जनों ग्राहक आते हैं और इब्राहिम के बनाए आमलेट का स्वाद चखते हैं।
इब्राहिम, इन कार्यों को पिछले 10-12 साल से करते आ रहा है, जिसके कारण उसे आमलेट बनाने में कोई परेषानी नहीं होती। महत्वपूर्ण बात यह है कि इब्राहिम के बनाए आमलेट सभी को पंसद आता है, जिसके कारण खरौद के अलावा रास्ते से गुजरने वाले दूसरे गांवों के लोग भी इब्राहिम के पास आमलेट खाने के लिए जरूर रूकते हैं।
इब्राहिम ने अण्डे की दुकान लगाने के पहले, साइकिल और इलेक्ट्रॉनिक दुकानों में भी काम किया। इसके बाद शटर मिस्त्री का भी काम किया। इस बीच उसकी जिंदगी परेषानियों से भरा ही रहा, क्योंकि उसके तीन भाई छोटे थे और मां भी बीमार रहती थी। ऐसी स्थिति में भी इब्राहिम ने हार नहीं मानीं और उसने खुद को भी संभाला, साथ ही परिवार के लोगों के लिए आषा की किरण भी साबित हुआ।

वह बताता है कि आने-जाने में ही उसे परेषानी होती है। अण्डा या आमलेट बनाने में उसे कोई परेषानी नहीं होती। इसी के चलते, इब्राहिम को दुकान तक पहुंचाने के लिए परिवार का कोई व्यक्ति या दोस्त आते ही हैं।
वह कहता है कि अनेक कार्य करने के बाद उसे सूझा कि अण्डे की दुकान खोला जाए और फिर खुद ही सभी काम करने के लिए प्रयास करने लगा, इसके बाद उसकी दिक्कतें कम होती गईं। वह कहता है कि मजबूरी के कारण सब काम करना पड़ता है। पेट की खातिर, वह जिंदगी की जद्दोजहद में जूझने से पीछे नहीं हटता।
इब्राहिम, परिवार के लिए कितना जूझता है, यह इसी से पता चलता है कि उसके परिवार में 15 लोग हैं। इब्राहिम के खुद के 2 बच्चे हैं और उसकी पत्नी भी एक पैर से विकलांग है। इससे पारिवारिक और आर्थिक समस्या समझी जा सकती है, फिर भी इब्राहिम और उसके परिवार के लोगों ने हार नहीं मानीं। जिसके बाद, अब धीरे-धीरे सुखद परिणाम सामने आते जा रहा है।
इब्राहिम को शासन से मदद की दरकार है, लेकिन उसे यह दर्द भी है कि शासन यदि मदद करता, तो फिर उसे इतनी मषक्कत नहीं करनी पड़ती। इब्राहिम को निःषक्त होने के कारण राषनकार्ड मिला था, किन्तु यह विडंबना है कि उसे भी नगर पंचायत ने छिन लिया है। ऐसे में उसका एक सहारा भी खत्म हो गया है।
इब्राहिम को महज 2 सौ रूपये पेंषन मिलती है। शासन की पीडीएस योजना के तहत उसे चावल भी मिलता था, लेकिन इब्राहिम के राषन कार्ड को नगर पंचायत ने लिया है। ऐसे में इब्राहिम को, अब चावल खरीदने की चिंता सताने लगी है।

अण्डे की दुकान चलाने वाले इब्राहिम, दोनों आंखों से नेत्रहीन हैं, बावजूद वह साइज के हिसाब से नोटों और सिक्कों को पहचान लेता है। कौन सा नोट 10 का है, 20 का है या फिर, 50 या 100 रूपये का। सभी नोटों को इब्राहित छूकर पहचान लेता है। इसके इतर, जितने भी सिक्के मिलते हैं, उन सिक्कों को उसे पहचानने में भी समय नहीं लगता। यही वजह है कि अण्डे की बिक्री के बाद, वह खुद ही ग्राहकों से पैसे लेता है। खास बात यह है कि इब्राहिम, 5 सौ का नोट, चिल्हर कराने की दिक्कतों के चलते नहीं लेता। 5 सौ के नोट देने पर वह ग्राहकों से पूछ लेता है और उसे वापस कर देता है।
इब्राहिम द्वारा बनाए गए अण्डे का आमलेट खाने के लिए रोजाना बहुत लोग आते हैं। इब्राहिम की मेहनत को भी वे समझते हैं और उसके उत्साह को बढ़ाने में भी, सभी ग्राहक आगे नजर आते हैं। इब्राहिम के पास जो भी ग्राहक पहुंचता है, सभी इब्राहिम के साहसिक कार्यों को देखकर सोचने पर विवष हो जाता है।
नगर पंचायत खरौद के अध्यक्ष गोविंद प्रसाद यादव कहते हैं कि इब्राहिम मेहनती है। नेत्रहीन हैं, गरीब परिवार के हैं। परिवार पालने के लिए वह अण्डा दुकान चलाता है, निष्चित ही वह एक मिसाल है। वे कहते हैं कि शासन की योजना का लाभ दिलाने का हरसंभव प्रयास किया जाएगा और कलेक्टर से मुलाकात कर चर्चा की जाएगी।
अब देखना होगा कि इब्राहिम की तकलीफें कब तक दूर होती हैं और प्रषासन के हुक्मरान, आखिर कब तक इन जैसों निःषक्तों की सुध लेते हैं ? इब्राहिम को फिलहाल जो मदद मिल रही है, उसे नाकाफी ही कही जा सकती है। इब्राहिम ने समाज में जो मिसाल पेष की है, निष्चित ही उससे हर किसी को सीख लेने की जरूरत है कि कितनी भी तकलीफें आ जाए, जिंदगी को संवारने का ‘जुनून’ कायम रखना चाहिए।

Friday, June 6, 2014

उसने खुद बनाई अपनी किस्मत की लकीर

कहा जाता है कि किसी व्यक्ति की किस्मत जन्म से तय हो जाती है, लेकिन जांजगीर-चांपा जिले के बालपुर गांव के लक्ष्मीनारायण मन्नेवार ने एक तरह से अपनी किस्मत की लकीर खुद बनाई है। दरअसल, लक्ष्मीनारायण दोनों हाथ और पैर से विकलांग है। बाजवूद, उसकी जीजिविषा देखते ही बनती है। दोनों हाथ और पैर से विकलांग होने के बाद भी लक्ष्मीनारायण ने मोबाइल रिपेयरिंग का काम सीखा है और इस तरह वह रोजी-रोटी की जुगत में औरों से कहीं आगे नजर आता है। इतना ही नहीं, वह पढ़ाई में भी तेज है और कम्प्यूटर ऑपरेटिंग में भी उसकी कोई सानी नहीं है। गरीबी परिस्थिति और अन्य कारणों से लक्ष्मीनारायण ने महज नवमीं तक की ही पढ़ाई पूरी की है।

जिला मुख्यालय जांजगीर से 15 किमी दूर चांपा इलाके के बालपुर गांव के महेत्तर लाल मन्नेवार के तीन बेटे हैं और वे लोग बेहद ही गरीब परिस्थिति में जीवनयापन कर रहे हैं। महेत्तर लाल के बड़े बेटे लक्ष्मीनारायण, हाथ-पैर से विकलांग होने से पूरा परिवार, एक अरसे तक निराष था, किन्तु लक्ष्मीनारायण ने अपनी प्रतिभा और कौषल कला से सभी का दिल जीत लिया है। लक्ष्मीनारायण की पढ़ाई नवमीं तक हुई है। गरीबी और अन्य कारणों से लक्ष्मीनारायण का पढ़ाई से नाता टूट गया, लेकिन उसका नाता सृजनषीलता से जुड़ गया। यही कारण है कि लक्ष्मीनारायण ने रायगढ़ में एक निजी संस्थान में कार्य करते मोबाइल रिपेयरिंग की जानकारी हासिल कर ली। आज उसकी वही कला, उसके जीवनयापन का जरिया बनते जा रहा है। विकलांग बेटे के निरंतर प्रगति और उपलब्धि हासिल करने से मां-बाप समेत परिवार के सदस्यों में खुषी नजर आती है।
लक्ष्मीनारायण को मोबाइल रिपेयरिंग के अलावा कम्प्यूटर चलाना भी आता है और वह विकलांगता के बाद भी जैसे-तैसे कम्प्यूटर के बटन का इस्तेमाल भी कर लेता है। धीरे-धीरे लक्ष्मीनारायण ने कम्प्यूटर में कई प्रोग्रामों पर कार्य करना भी सीख लिया है।
लक्ष्मीनारायण ने विकलांगों के हित बहुत कार्य किया है। विकलांगों के विकास और उन्हें आगे लाने के लिए सतत् प्रयास के लिए 2007 में तत्कालीन कलेक्टर बीएल तिवारी ने उसे सम्मानित भी किया था। सम्मान से जुड़ी तस्वीर लक्ष्मीनारायण के घर में आज भी दीवारों पर टंगी है, जिसे निहारते हुए लक्ष्मीनारायण की आंखों में जरूर एक सुकून नजर आता है।
बातचीत में लक्ष्मीनारायण कहता है कि मोबाइल रिपेयरिंग का कार्य उसने शुरू किया है। इस दिषा में उसे और भी प्रषिक्षण की जरूरत है, क्योंकि नई तकनीक के अनेक मोबाइल बाजार में आ चुके हैं। साथ ही शासन से मदद की आवष्कता है। वह बेहद ही गरीब परिवार से हैं। परिवार में 3 भाई है और खेती-बाड़ी बहुत कम है। गरीबी के कारण वह अपनी कला को और विस्तार नहीं दे पा रहा है। ऐसे में शासन को मदद के लिए आगे आना चाहिए।
लक्ष्मीनारायण बताता है कि  मोबाइल रिपेयरिंग में उसे कुछ दिक्कतें होती हैं। मोबाइल के अंदरूनी हिस्सों के पार्ट्स की रिपेयरिंग में परेषानी होती है, लेकिन फिर भी वह निरंतर प्रयास और मेहनत पर भरोसा रखता है।
सबसे खास बात है कि लक्ष्मीनारायण की विकलांगता पर चिंतित रहने वाले पिता महेत्तर लाल की आंखों में बेटे के गुण और उसकी उपलब्धि, अब साफ नजर आती है। वे  कहते भी हैं कि लक्ष्मीनारायण जो भी प्रयास करता है, उसमें प्रोत्साहित करते हैं। विकलांग होने के बाद भी वह काफी आगे है। लक्ष्मीनारायण के पिता को भी शासन से मदद की दरकार है।
सबसे खास बात यह है कि बालपुर गांव में किसी का मोबाइल डिस्टर्ब होता है तो सभी लोग लक्ष्मीनारायण के पास पहुंचते हैं। लक्ष्मीनारायण की काबिलियत के सभी कायल हैं। वे चाहते हैं कि लक्ष्मीनारायण, आने वाले दिनों में आगे बढ़े और बालपुर गांव का नाम रौषन करे।
लक्ष्मीनारायण ने  हाथ-पैर दोनों से विकलांग होने के बावजूद, जिस तरह से अपनी काबिलियत साबित किया है, निष्चित ही वह सषक्त समाज और उन युवाओं के लिए मिसाल है, जो शारीरिक तौर पर सक्षम होने के बाद भी असफलता के घोर अंधकार में डूबकर, मौत को गले लगा लेते हैं। आषा यही है कि आने वाले दिनों में लक्ष्मीनारायण को शासन से मदद मिल जाए, ताकि उसके जीवन के सफर में, गरीबी और दुखों का पहाड़ हट जाए।

इंजीनियर बनना चाहते हैं मेरिट में आए तीनों विद्यार्थी

जांजगीर-चांपा जिले में षिक्षा की नींव मजबूत होती जा रही है। यह साबित होता है, बोर्ड परीक्षाओं में हर साल छात्रों के मेरिट में स्थान बनाने से। इस साल भी 10 वीं बोर्ड की परीक्षा की मेरिट सूची में जिले के 2 छात्र और 1 छात्रा यानी 3 विद्यार्थियों ने जगह बनाई है और जिले का नाम रौषन किया है। तीनों ही विद्यार्थी इंजीनियर बनने की तमन्ना रखते हैं और वे सरस्वती षिषु मंदिर के छात्र-छात्राएं हैं। खास बात यह है कि मेरिट में सातवां स्थान बनाने वाले चांपा के विकास कुमार देवांगन को गणित में 100 फीसदी अंक हासिल हुआ है।
जिले की षिक्षा के विकास पर गौर करें तो दषकों से छात्र-छात्राएं 10 वीं और 12 वीं की मेरिट सूची में स्थान बनाते रहे हैं। जिले को हर साल के परिणाम में यह सौभाग्य मिलते रहा है, लेकिन 2008 में मेरिट में हुए फर्जीवाड़े ने जिले की षिक्षा व्यवस्था को कलंकित कर दिया। आज भी जिले के छात्र, उस कलंक को मिटाने की कोषिष में लगे हैं। हालांकि, षिक्षा के मामले में जिले की तस्वीर अब बदली हुई नजर आ रही है। षिक्षा के स्तर में सुधार होने के साथ ही पढ़ाई के प्रति छात्रों और अभिभावकों को रूझान बढ़ा है। यही वजह है कि मेरिट में आने वाले छात्रों को नकल के मामले में शक की निगाह से नहीं देखा जाता। मेरिट में आए छात्रों द्वारा भी अथक मेहनत की जाती है, जिसका प्रतिफल, लगन से पढ़ाई करने वाले छात्रों को मिल भी रहा है।
मेरिट में आए हर छात्र की कहानी, एक-दूसरे से जुदा है। इतना जरूर है कि सभी ने कड़े परिश्रम की पढ़ाई के बाद यह मुकाम हासिल किया है। मेरिट में सातवां रैंक प्राप्त, सरस्वती षिषु मंदिर चंद्रपुर की छात्रा वंदना देवांगन ने भी इंजीरियर बनने का सपना संजोया है और वह खुद और उसके परिवार के लोग, उसकी पूरी मदद करते नजर आ रहे हैं। मेरिट में आए तीनों विद्यार्थियों का कहना है कि वे हर दिन 8 से 10 घंटे पढ़ाई करते रहे हैं। सभी अपने भविष्य के सपनों में खोए नजर आते हैं और इत्तीफ ही है कि तीनों ही छात्र-छात्राएं, इंजीनियर बनना चाहते हैं और तीनों, सरस्वती षिषु मदिर से पढ़ाई कर रहे है।
10 वीं बोर्ड परीक्षा की मेरिट सूची में सातवां स्थान हासिल करने वाले विकास कुमार देवांगन, मैकेनिकल इंजीनियर बनना चाहता। उसे अपने पिता चंद्रकांत देवांगन से प्रेरणा मिली है, क्योंकि वे एक निजी कंपनी में कार्य करते हैं, जहां उन्होंने मैकेनिकल इंजीनियरिंग के कार्य को नजदीक से देखा है। अनुभवी लोगों की सलाह उनके लिए काफी मददगार साबित हुई है।

मेरिट में आठवां रैंक प्राप्त करने वाले सरस्वती षिशु मंदिर लोहर्सी ( खरौद ) के छात्र किषोर कष्यप ने भी पढ़ाई करने मेहनत में कोई कमी नहीं की। ग्रामीण इलाके होने की वजह से अक्सर लोहर्सी गांव में बिजली की आंखमिचौली बनी रहती है, जिसके कारण किषोर को मोमबत्ती की लौ के सहारे पढ़ाई करनी पड़ती है। फिर भी उसने पढ़ाई प्राथमिकता दी और आज वह नई उम्मीदों के साथ भविष्य को निहार रहा है।
इधर षिक्षा के स्तर में लगातार सुधार होने तथा छात्रों के मेरिट में स्थान बनाने से षिक्षा विभाग के अफसर में गदगद हैं। उनके मुताबिक, इस साल की परीक्षा में 4 फीसदी अधिक रिजल्ट रहा है। इसके लिए विभाग ने एक प्रोजेक्ट पर काम किया था।
जिले में षिक्षा की बुनियाद जिस तरह मजबूत होती जा रही है। ऐसे में कहा जा सकता है कि षिक्षा के मामले में आने वाले दिन, सुखद अनुभूति वाले होंगे। मेरिट में आए विद्यार्थियांे से प्रेरणा लेकर दूसरे छात्र भी उनके नक्षे-कदम पर चलेंगे, तो उन छात्रों को भी उपलब्धि हासिल होगी, जो असफलता मिलने पर निराष हो जाते हैं। निष्चित ही, छात्रों द्वारा नए-नए कीर्तिमान स्थापित करने से जिले का मान भी अवष्य बढ़ेगा।

Thursday, June 5, 2014

पौधरोपण करने खर्च करते हैं खुद की कमाई

जिला मुख्यालय जांजगीर में पौधरोपण करने युवाओं में गजब का जुनून नजर आता है। चार युवाओं ने मिलकर ‘जज्बा फाउंडेषन बनाया, इसके बाद कारवां बढ़ता गया। जज्बा फाउंडेषन के युवाओं ने 3 साल पहले पौधरोपण का यज्ञ शुरू किया। आज इन युवाओं ने 3 हजार से अधिक पौधरोपण कर, पर्यावरण संरक्षण में मिसाल कायम किया है। अहम बात यह है कि पौधरोपण करने के लिए इन युवाओं द्वारा खुद की कमाई का 5 से 10 फीसदी हिस्सा खर्च किया जाता है।
बिगड़ते पर्यावरण से आज हर कोई प्रभावित है, लेकिन पर्यावरण की चिंता बहुत कम लोग करते हैं। इसी माहौल में जांजगीर का ‘जज्बा फाउंडेषन’ के युवाओं द्वारा पर्यावरण संरक्षण के लिए किए जा रहे प्रयास की जितनी तारीफ की जाए, कम ही है।
दरअसल, तीन साल पहले जांजगीर के चार युवकों नवनीत राठौर, नरेष पैगवार, ऋषिकेष अग्रवाल, ऋषिकेष उपाध्याय ने पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने के लिए ‘जज्बा फाउंडेषन’ बनाया और शहर में पौधरोपण की शुरूआत की। कुछ ही महीनों में इन युवाओं की मेहनत और लगन रंग लायी और सैकड़ों पौधे रोपे गए। साथ ही इनके जूनुन को देखकर जांजगीर के अनेक युवा ‘जज्बा फाउंडेषन’ से जुड़ गए। इस तरह पौधरोपण का यह कारवां बढ़ता गया।
आज स्थिति यह है कि 20 से 25 युवाओं ने मिलकर नगर की कई जगहों में हरियाली ले आई है। खास बात यह है कि युवाओं द्वारा रोपे गए अधिकांष पौध आज भी जीवित हैं और हरियाली बिखर रहे हैं। युवाओं द्वारा पौधरोपण के साथ उसके संरक्षण पर विषेष ध्यान दिया जाता है। पर्यावरण को बचाने का सपना पाले इन युवाओं की फौज में अब शहर के दूसरे लोगों ने भी सहभागिता निभानी शुरू कर दी है, जिनमें डॉक्टर, व्यवसायी से लेकर कई नौकरीपेषा और जनप्रतिनिधि शामिल हैं।
‘जज्बा फाउंडेषन’ के संस्थापक सदस्य नवनीत राठौर कहते हैं कि पौधरोपण कर पर्यावरण को बचाने की प्रेरणा उन्हें अपने पूर्वजों से मिली है। वे कहते हैं कि जहां भी खाली स्थान मिलता है, वहां पौधरोपण करने का प्रयास किया जाता है और पौधों के संरक्षण के लिए हर स्तर पर प्रयास किया जाता है। वे बताते हैं कि पौधरोपण करने के लिए जज्बा फाउंडेषन के सदस्य खुद की कमाई का 5 से 10 फीसदी हिस्सा खर्च करते हैं और पर्यावरण को बचाने में योगदान देते हैं। इसी का परिणाम है कि बीते 3 बरसों में अब तक 3 हजार से अधिक पौधों का अलग-अलग जगहों पर रोपण किया जा चुका है।
जज्बा फांडेषन के एक और संस्थापक सदस्य नरेष पैगवार कहते हैं कि पौधरोपण एक पुनीत कार्य है। शहर में लगातार पेड़ों की कटाई हो रही थी। इसी के तहत हमारी सोच बनी की कि पर्यावरण की दिषा में पौधरोपण कर समाज के लिए कार्य किया जाए।
जज्बा फाउंडेषन के एक अन्य सदस्य राहुल अग्रवाल कहते हैं कि पर्यावरण बिगड़ रहा है और भागमभाग के समय में पौधरोपण करने कोई ध्यान नहीं देता। इसीलिए जज्बा फाउंडेषन ने पर्यावरण को बचाने के लिए पौधरोपण करने मन बनाया। वे चाहते हैं कि और भी लोग पौधरोपण के इस महाभियान से जुड़े, आने वाले दिनों में आसपास के क्षेत्रों में भी पौधरोपण किया जाएगा।
जज्बा फाउंडेषन के युवाओं ने पौधरोपण के प्रचार-प्रसार के लिए एक वेबसाइट भी बनाई है। साथ ही फेसबुक पर भी लोगों को पर्यावरण संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करने का प्रयास, निरंतर जारी है। निष्चित ही जज्बा फांडेषन के युवाओं के ‘जज्बा’ एक मिसाल बन गया है और इसी का परिणाम है कि शहर विकास के लिए पेड़ों की कटाई के बाद भी हरियाली नजर आ रही है।

...ये भी निभाते हैं भूमिका
‘जज्बा फाउंडेषन’ के युवाओं के सकारात्मक सोच को देखते हुए शहर के अनेक युवाओं का संपर्क हुआ है। संस्थापक सदस्यों के अलावा पर्यावरण को बचाने किए जा रहे पौधरोपण में अब जज्बा फाउंडेषन में अमन अग्रवाल, मनमोहन अग्रवाल, आलोक अग्रवाल, सुषील अग्रवाल, जिला अस्पताल के एमडी डॉ. अनिल जगत, डेंटिस्ट डॉ. सौरभ शर्मा एवं सनत राठौर भी अहम भूमिका निभाते हैं। इनके अलावा अन्य सदस्य भी हैं, जो पर्यावरण संरक्षण करने किए प्रयास में महती भूमिका निभाते आ रहे हैं।

इन इलाकों में पौधरोपण
वैसे तो शहर में जहां भी खाली जगह मिलती है, वहां इन युवाओं द्वारा पौधरोपण का प्रयास किया जाता है। बीते इन 3 बरसों में अकलतरा रोड के डिवाइडर, जिला अस्पताल, हसदेव क्लब तुलसी भवन, नैला के मुक्तिधाम में पौधरोपण किया गया है। सदस्यों का कहना है कि आने वाले दिनों में जो भी उद्यान बेजार हो गए हैं, वहां हरियाली लाने पौधरोपण किया जाएगा। इस दिषा में सदस्यों द्वारा निरंतर प्रयास किए जा रहे हैं।

पर्यावरण दिवस पर पौधरोपण
पर्यावरण दिवस 5 जून को कचहरी चौक के पास अंबेडकर उद्यान में नपा अध्यक्ष रमेष पैगवार और उपाध्यक्ष नीता चुन्नू थवाईत के नेतृत्व में ‘जज्बा फाउंडेषन’ के सदस्यों ने पौधरोपण किया। इस उद्यान में अंबेडकर की प्रतिमा लगी है, लेकिन साफ-सफाई का अभाव था। इसी को ध्यान में रखकर पौधरोपण किया गया, ताकि अंबेडकर उद्यान में हरियाली बनी रहे और लोगों वहां तक पहुंचे।

युवाओं ने रोपे ये पौधे...
युवाओं द्वारा हरश्रृंगार, पुरनजीवा, प्राइड ऑफ इंडिया, करंज, झारूल, गुलमोहर, हाउडी क्लाउडी, स्वर्णचंपा, मधुकामिनी, कचनार, अमलताष, बरगद, पीपल समेत अन्य पौधे रोपे गए हैं। पौधरोपण की सबसे बेहतर स्थिति नैला के मुक्तिधाम में देखी जा सकती है।

मषरूम ने तोड़ा ‘गरीबी’ से नाता

युवाओं के लिए रोजगार एक बड़ी समस्या बन गया है, लेकिन जिन युवाओं में जज्बा है और सीखने की ललक है, उनकी राह आसान होते देर नहीं लगती। मषरूम से रोजगार मिलने के कारण गरीबी से युवाओं का नाता भी टूटा है। ऐसी मिसाल कायम किया है, जांजगीर-चांपा जिले के लक्ष्मीनारायण मन्नेवार और दीनदयाल यादव ने। दरअसल, मषरूम इनके आय का मुख्य जरिया बन गया है, जिससे इनकी गरीबी परिस्थिति में भी बदलाव आने लगा है।
ये हैं, चांपा इलाके के बालपुर गांव के लक्ष्मीनारायण मन्नेवार। इन्होंने शारीरिक विकलांगता को मात देते हुए मषरूम उत्पादन में अपनी अलग ही पहचान बनाई है और हर साल हजारों रूपये मषरूम उत्पादन करके आय अर्जित कर रहे हैं। ऐसे ही बहेराडीह गांव के दीनदयाल यादव ने भी मषरूम को अपनी आय का प्रमुख जरिया बना रखा है। कम खर्च में आय का बड़ा साधन साबित हो रहा है, मषरूम उत्पादन। साथ ही मेहनत भी कम है, एक बार स्पॉन लगाने का काम हुआ, उसके बाद पानी से हल्की-हल्की सिंचाई ही करनी पड़ती है।
साल में कुछ महीनों को छोड़ दें तो मषरूम का उत्पादन काफी अधिक होता है और मषरूम में पोषक तत्वों होने के कारण इसके खरीददारों की कमी भी नहीं रहती। बषर्ते, मषरूम उत्पादकों को बिक्री के लिए गांव से शहर की ओर रूख करना पड़ता है। देखा जाए तो संसाधन के लिहाज से कम खर्च में मषरूम उत्पादन में हजारों रूपये की आमदनी होती है। यही वजह है कि प्रषिक्षण के माध्यम से और भी युवा, मषरूम उत्पादन से धीरे-धीरे जुड़ रहे हैं। मषरूम तैयार करने वाले कृष्णकुमार और दीनदयाल, जिले के अनेक जगहों में जाकर प्रषिक्षण दे चुके हैं। जिससे लोगों को रूझान इस नगदी खेती को बढ़ता ही जा रहा है।
इतना जरूर है कि मषरूम की खेती करने वाले लक्ष्मीनारायण मन्नेवार को प्रचार-प्रसार की कमी खलती है, लेकिन मषरूम का जितना उत्पादन वे कर रहे हैं, उसकी बिक्री नजदीक के शहरों में होने से उनमें संतोष भी नजर आता है। दूसरी मषरूम का रोजगार और अधिक नहीं बढ़ने का उन्हें अफसोस भी है।
मषरूम की खेती करने वाले किसान दीनदयाल यादव को बस, एक ही कमी खलती है और वह है, मषरूम बनाने वाले ‘स्पॉन’ ( मषरूम बीज ) की। मषरूम के लिए स्पॉन, किसानों को रायपुर या बिलासपुर से लाना पड़ता है, जिसके चलते मषरूम उत्पादन और अधिक नहीं हो पा रहा है। इसके कारण खर्च में भी कुछ वृद्धि हो जाती है। वे कहते हैं कि मषरूम के व्यवसाय को बेहतर तरीके से करने के लिए कृषि विज्ञान केन्द्र और चांपा की एक संस्था द्वारा ‘स्पॉन’ बनाने की दिषा में कार्य करने मदद करने का भरोसा दिलाया है।
दूसरी ओर कृषि विज्ञान केन्द्र के वैज्ञानिकों के अपने दावे हैं। उनकी मानें तो मषरूम उत्पादन को प्रोत्साहन देने के लिए केन्द्र में बुलाकर और किसानों के गांवों में जाकर प्रषिक्षण दिया जाता है। साथ ही स्पॉन ( मषरूम बीज ) बनाने के लिए लैब में जानकारी दी जाती है।
मषरूम उत्पाद कर रहे किसानों ने कृषि वैज्ञानिकों की सलाह पर ही आय का बड़ा जरिया हासिल किया है, लेकिन स्पॉन की व्यवस्था, जिले में नहीं होने से मषरूम व्यवसाय थम सा गया है। ऐसे में प्रषासन को चाहिए कि किसानों को प्रोत्साहित करे, ताकि जिले के और भी किसान और युवा, मषरूम से रोजगार पाकर उन्नत और खुषहाल बन सके।

Sunday, February 2, 2014

जांजगीर-नैला के ‘दधिचि’ सूरजमल जैन

समाजसेवी स्व. श्री सूरजमल जैन जी
जांजगीर-नैला ( छत्तीसगढ़ ) के जैन परिवार ने देहदान का जो मिसाल पेश की है, वह समाज के हर वर्ग के लिए अनुकरणीय है। 93 साल की उम्र में समाजसेवी सूरजमल जैन का देहांत हुआ तो उनके पार्थिव देह को मेडिकल कॉलेज बिलासपुर को सौंप दिया गया। इस तरह उन्होंने पुरातन ‘दधिचि’ परंपरा को पुरर्जीवित किया है। उनके देह ‘दान’ की तारीफ करते हुए लोगों ने समाजसेवी सूरजमल जैन को जांजगीर-नैला के ‘दधिचि’ की संज्ञा दी है।
खास बात यह है कि सूरजमल जैन के देहांत के बाद, उनसे प्रेरणा लेकर उनके बेटे महेन्द्र जैन व बहु शोभा जैन ने भी अपना देहदान किया है। इस पुण्य कार्य से न केवल उनका परिवार गौरव महसूस कर रहा है, बल्कि समाज के लोग भी इस सद्कार्य से अभिभूत हैं।
देहदान का संकल्प लेने वाले महेन्द्र जैन और श्रीमती शोभा जैन और साथ में परिजन सुषील जैन ( पीछे )
30 जनवरी यानी राष्ट्रपिता की पुण्यतिथि के दिन समाजसेवी सूरजमल जैन ने भी देह त्यागा। इसके बाद उनकी इच्छा के अनुरूप परिवार के लोगों ने मेडिकल कॉलेज बिलासपुर प्रबंधन को जानकारी दी। दरअसल, 3 साल पहले समाजसेवी सूरजमल जैन ने देहदान करने की मंषा परिवार वालों के समक्ष जाहिर की थी। इस पर सभी ने खुषी जाहिर करते हुए उनके इस पुनित कार्य की प्रषंसा की थी। इसके बाद देहदान करने का आवेदन दिया गया था। जिसके तहत देहावसान के बाद मेडिकल कॉलेज को उनका शरीर सौंप दिया गया।
इधर नैला में उनके निवास पर समाजसेवी सूरजमल जैन को श्रद्धांजलि देने वालों का तांता लगा रहा। न केवल सूरजमल जैन का परिवार, बल्कि जैन समाज के लोग गदगद हैं कि उनके समाज के किसी व्यक्ति ने ऐसा सद्कार्य किया है, जिससे दूसरे लोग भी प्रेरणा लेंगे। उनकी मानें तो छग ही नहीं, बल्कि देष में जैन समाज का यह पहला ऐसा अवसर होगा, जब समाज के किसी व्यक्ति ने अपने शरीर दान किया हो। फिलहाल, सूरजमल जैन के देहदान की सोच को महापुरूष ‘दधिचि’ से जोड़ा जा रहा है और उन्हें, जांजगीर-नैला के ‘दधिचि’ भी कहा जा रहा है।
गौरतलब है कि मेडिकल कालेज बिलासपुर में छात्रों को पढ़ने के लिए ‘डमी’ शरीर दिया जाता है, जिससे उनकी पढ़ाई ठोस तरीके से नहीं हो पाती। मेडिकल छात्रों की पढ़ाई अगर सही न हुई तो डॉक्टर, कैसे लोगों का सही इलाज कर पाएंगे। इसी तकलीफ को ध्यान में रखकर जांजगीर-नैला के एक ही परिवार के तीन लोगों ने देहदान का संकल्प लिया है। निष्चित ही यह निर्णय सभी समाज के हर वर्ग के लिए प्रेरणादायी कदम है।
सूरजमल के सद्कार्य से सभी लोग अभिभूत हैं और वे उनके कार्य की तारीफ करते हुए समाज के हर वर्ग के लोगों को पुरानी रूढ़िवादिता को तोड़कर शरीर दान करने आगे आएं, ताकि मेडिकल छात्रों को पढ़ाई और शोध में हर तरह से सहयोग मिले। इस एक पहल से आने वाले दिनों में एक सकारात्मक परिणाम आने के आसार भी जाग्रत हो गए हैं।
हमारे समाज में ‘देहदान’ की पुरानी परम्परा है। ऋषि ‘दधिचि’ ने अपना देह देकर देवताओं को उपकृत किया था, लेकिन आज के समय में साइंस के लिए जो कार्य जैन परिवार ने किया है, उसे हर किसी के द्वारा सराहा जा रहा है। इस मिसाल के बाद, आधुनिक समाज को इस त्याग से निष्चित ही नई प्रेरणा मिलेगी।
...अंत में ऐसे ‘व्यक्तित्व’ को सादर प्रणाम...

Wednesday, January 1, 2014

‘तनख्वाह प्लस नहीं, चैलेंजिंग हो जॉब’

अभिजीत षर्मा
जीवन के किसी भी पड़ाव में कभी भी हार नहीं माननी चाहिए, क्योंकि असफलताओं के पीछे ही सफलता छिपी रहती है, बस उसके भीतर झांककर सफलता की उस परछाई को पहचाने की जरूरत रहती है। वैसे भी कड़ी मेहनत की कोई सानी नहीं रहती और मेहनत करने वालों को कभी भी निराषा नहीं होती। मेहनत, न खुलने वाले ताले की ऐसी चाबी है, जिसकी बदौलत असफलता के हर अंधकार को दूर किया जा सकता है। समाज के उत्थान की दिषा में सेवा करने के लिए, ‘तनख्वाह प्लस जॉब’ की कोई अहमियत नहीं होती। जॉब ऐसा हो, जो ‘चैलेंजिंग’ हो और जिसके माध्यम से लोगों के हित में कार्य किया जा सके।
यह बातें सिविल सेवा परीक्षा यानी पीएससी में ‘अधीनस्थ लेखा सेवा अधिकारी’ के तौर पर चयनित अभिजीत षर्मा ने खास बातचीत में कही। अभिजीत को पीएससी की परीक्षा में 106 रैंक मिला है और यह उनका दूसरा प्रयास था। इस उपलब्धि से खुद अभिजीत एवं उनके परिवार तथा मित्रगण काफी उत्साहित हैं, क्योंकि उन्होंने पीएससी जैसी अहम परीक्षा के लिए भी कहीं से भी कोचिंग नहीं ली। उनकी मानें तो पीएससी परीक्षा की तैयारी में उन्हें सबसे अधिक मां श्रीमती पुष्पा षर्मा का सहयोग मिला। साथ ही छोटे भाई समेत परिवार के अन्य लोगों व मित्रगण ने भी उनका बढ़-बढ़कर उत्साहवर्धन किया, जिसके परिणाम स्वरूप आज पीएससी परीक्षा उत्तीर्ण करने का सपना साकार हो सका है।
बातचीत में अभिजीत ने बताया कि उनकी प्रारंभिक षिक्षा खरौद में मामा सुबोध षुक्ला ( अध्यक्ष, पानी पंचायत ) के घर रहकर, षिवरीनारायण के सरस्वती षिषु मंदिर में हुई। इसके बाद उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक्स में इंजीनियरिंग की परीक्षा उत्तीर्ण की। इस तरह बिलासपुर के चौकसे इंजीनियरिंग कॉलेज में 2006 में दो साल यानी 2008 तक लेक्चररषिप की और वहां अध्यापन के अनुभव के बाद उन्होंने बिलासपुर में ही दो साल बीएसएनएल में सेवाएं दीं। इस दौरान वे लगातार अपने आयाम को पाने के लिए कोषिष में लगे रहे और 2010 में एयरपोर्ट ऑथरिटी ऑफ इंडिया की विषेष परीक्षा उत्तीर्ण करते हुए एयरपोर्ट टैªफिक कंट्रोलर ( एटीसी ) के पद पर चयन हुए। फिलहाल, वे इसी पद पर वर्तमान में कार्यरत हैं और प्रथम नियुक्ति मुंबई में हुई। इसके चंद महीनों बाद से वे अब महाराष्ट्र के गोंदिया में एटीसी के पद पर सेवाएं देते आ रहे हैं।
अभिजीत ने अपनी पढ़ाई के बारे में बताया कि एटीसी के पद पर पदस्थ होने की वजह से समय कम मिलता था। साथ ही एटीसी का कार्य काफी जिम्मेदारी भरा है। साथ ही तनाव भी रहता है कि किसी तरह की चूक न हो जाए, इसके लिए सावधानी बरतने के लिए हमेषा सतर्क रहना पड़ता। बावजूद, वे हर दिन पीएससी की तैयारी में लगे रहते। वे बतातें हैं कि पीएससी की परीक्षा उन्होंने पहली बार 2008 में दी थी, इस दौरान वे मेंस की परीक्षा में पीछे हो गए। हालांकि, उन्होंने असफलता से हिम्मत नहीं हारी और उससे सबक लेते हुए एक बार फिर तैयारी षुरू की और नतीजा, उनके सपनों के लिहाज से रहा।
अभिजीत बताते हैं कि इलेक्ट्रॉनिक्स में इंजीनियरिंग करने के बाद वे कई और जॉब के लिए तैयारी कर रहे थे और इस दौरान उनकी नियुक्ति छग राज्य विद्युत मंडल में जेई तथा इंडियन टेलीकॉम और रिलायंस कंपनी में भी उंचे पद पर हुआ था, लेकिन मन ने तो कुछ और ठान रखा था। लिहाजा, वे इन नौकरियों को ज्वाइन नहीं किया और पीएससी परीक्षा की तैयारी में लग गए। इस दौरान एटीसी के तौर पर नियुक्ति हुई।
वे मानते हैं कि किसी भी जॉब को केवल तनख्वाह बेस पर नहीं करना चाहिए, उसके माध्यम से सामाजिक हित तथा समाज में जनचेतना लाने के दृष्टिकोण से क्या किया जा सकता है, ऐसी आषाभरी सोच होनी चाहिए। उनकी सोच ऐसी है, इसलिए वे सिविल सेवा परीक्षा के माध्यम से समाज के तबके लिए सेवा देना चाहते थे, जो एक तरह से पूरी हुई है, किन्तु उनकी नई उंचाईयों को छूने की आकांक्षाएं अभी पूरी नहीं हुई है। वे कहते हैं कि एयरपोर्ट ट्रैफिक कंट्रोलर के जिस पद पर वे कार्य कर रहे है, उसके लिहाज से ‘अधीनस्थ लेखा सेवा अधिकारी’ की तनख्वाह में काफी अंतर है, लेकिन उन्हें तनख्वाह के बजाय, जॉब में चैलंेज नजर आता है, उससे वे आकर्षित हुए हैं।
अंत में उन्होंने अपने संदेष में यही कहा कि हर व्यक्ति में कोई न कोई, गुण छिपा रहता है, बस उसे पहचानने की जरूरत रहती। किसी भी व्यक्ति को अपने गुणों को निखारने के लिए सतत प्रयत्नषील रहना चाहिए, इसके बाद सफलता निष्चित ही कदम चूमती है। असफलता की परछाई भी किनारे नहीं आती। यह भी सही है कि असफलता से कभी निराष होकर नहीं बैठना चाहिए, बल्कि असफलता के सहारे से सफलता को साधने की भरसक कोषिष करनी चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि सभी को समान अवसर मिलता है, किन्तु सफलता उसे ही मिलती है, जो अपनी योग्यता से उसकी पहचान कर लेता है।


प्रषासनिक क्षेत्र में सेवा देने की है रूचि
अभिजीत अपनी सफलता से गदगद तो हैं, किन्तु उनकी मानें तो उनका लक्ष्य, प्रषासनिक क्षेत्र में सेवा देने की है, इसलिए वे आने वाले दिनों में अपनी कोषिषों को जारी रखेंगे और एक दिन प्रषासनिक क्षेत्र की सेवाओं में चयनित होकर ही रहेंगे। वे कहते हैं कि पीएससी में 106 रैंक के लिहाज से उनका चयन डीएसपी के पद पर हो जाता, लेकिन वे पुलिस विभाग में नही जाना चाहते। प्रषासन में कार्य करने की रूचि है, किन्तु इसके लिए उन्हें अभी और इंतजार करना पड़ेगा। खैर, वे उंचाईयों को प्राप्त करने के लिए कमर कस चुके हैं और निष्चित ही उनके मन की आषाएं जरूर पूरी होंगी, क्यांेंकि कहा भी जाता है कि ‘कोषिष करने वालांे की कभी हार नहीं होती’।

समाज षास्त्र से लहराया परचम
इलेक्ट्रॉनिक्स से इंजीनियरिग और स्कूल में विज्ञान की पढ़ाई के बाद पीएससी में समाज षास्त्र लेकर सफलता अर्जित करना किसी चुनौती से कम नहीं थी। इस चुनौती को अभिजीत ने स्वीकार किया और निरंतर अध्ययन करते परीक्षा उत्तीर्ण किया तथा उस मिथक को भी तोड़ दिया, जिसमें कहा जाता है कि किसी प्रतियोगी परीक्षा को, बिना कोचिंग के उत्तीर्ण नहीं किया जा सकता। अभिजीत कहते हैं कि एटीसी की नौकरी करते पढ़ाई के लिए बहुत कम समय मिलता है, उसी समय का सदुपयोग कर महती परीक्षा में उत्तीर्ण होकर खुद को साबित किया और सभी के सहयोग से मिले अवसर को भुनाने में भी कामयाब रहा।