Saturday, June 14, 2014

अंधत्व के बाद भी जीवन की दौड़ में वह आगे

जिले के खरौदनगर में एक ऐसा शख्स है, जो दोनों आंखों से नेत्रहीन होने के बाद भी जिंदगी की दौड़ में, औरों से कहीं आगे है। इब्राहिम हुसैन नाम का शख्स, खरौद के बस स्टेण्ड के पास अण्डे की दुकान चलाता है और इसी से अपने परिवार का पेट पालता है। अहम बात यह है कि उसकी पत्नी भी एक पैर से विकलांग है। ऐसे में पत्नी समेत दो बच्चों के रहन-बसन के लिए उसे काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है। यह कहने में अतिषयोक्ति नहीं होगी कि इब्राहिम ने उन लोगों के लिए मिसाल पेष की है, जो थोड़ी भी मुष्किलें आने पर ‘जिंदगी’ से हार मान जाते हैं।
जिला मुख्यालय जांजगीर से 35 किमी दूर नगर पंचायत खरौद है, जहां सुकुल पारा में अपने परिवार के साथ इब्राहिम हुसैन रहता है। इब्राहिम की जिंदगी, जन्म से ही बदरंग नहीं थी, मगर करीब 8-10 साल की उम्र में उसकी आंखें किसी बीमारी की चपेट में आ गई। गरीबी परिस्थति के बावजूद, आंखों का इलाज भी कराया गया, लेकिन अंततः उसकी दोनों आंखों की रोषनी चली गई।
इब्राहिम की खासियत यह है कि वह दोनों आंखों से नेत्रहीन होने के बाद भी अण्डे की दुकान में किसी की मदद नहीं लेता। प्याज और टमाटर काटने से लेकर, स्टोव चालू करने से लेकर और फिर अण्डे की आमलेट बनाने तक, इस दौरान उसे कोई परेषानी नहीं होती। यहां तक कि वह चाकू को खुद ही तेज कर लेता है।
इब्राहिम को देखकर पहली नजर में किसी को समझ में नहीं आता कि वह नेत्रहीन है। सामान्य व्यक्ति की तरह ही वह जिस अंदाज में सभी सामग्री डालने के बाद, स्टोव में आमलेट को पकाता है, इसे देखकर हर कोई हैरत में पड़ जाता है और फिर इब्राहिम की तारीफ किए बगैर नहीं रहता।

इब्राहिम की एक और खास खूबी है, वह ग्राहकों से मिले नोट या सिक्के को छूकर पहचान लेता है कि वह कितने का नोट या फिर सिक्का है। इब्राहिम कहता है कि वह 100 रूपये तक का ही नोट लेता है, क्योंकि वह निरंतर अभ्यास से नोटों को पहचानना सीख गया है। 5 सौ रूपये के नोट देने पर वह ग्राहकों से पूछ लेता है और फिर चिल्हर की दिक्कतों के चलते 5 सौ रूपये का नोट नहीं लेता।
इतना ही नहीं, अण्डे की दुकान को वह अकेले संभालता है और शाम के समय ही दुकान लगाता है। दुकान में वह 4 से 5 घंटे बिताता है। इस दौरान दर्जनों ग्राहक आते हैं और इब्राहिम के बनाए आमलेट का स्वाद चखते हैं।
इब्राहिम, इन कार्यों को पिछले 10-12 साल से करते आ रहा है, जिसके कारण उसे आमलेट बनाने में कोई परेषानी नहीं होती। महत्वपूर्ण बात यह है कि इब्राहिम के बनाए आमलेट सभी को पंसद आता है, जिसके कारण खरौद के अलावा रास्ते से गुजरने वाले दूसरे गांवों के लोग भी इब्राहिम के पास आमलेट खाने के लिए जरूर रूकते हैं।
इब्राहिम ने अण्डे की दुकान लगाने के पहले, साइकिल और इलेक्ट्रॉनिक दुकानों में भी काम किया। इसके बाद शटर मिस्त्री का भी काम किया। इस बीच उसकी जिंदगी परेषानियों से भरा ही रहा, क्योंकि उसके तीन भाई छोटे थे और मां भी बीमार रहती थी। ऐसी स्थिति में भी इब्राहिम ने हार नहीं मानीं और उसने खुद को भी संभाला, साथ ही परिवार के लोगों के लिए आषा की किरण भी साबित हुआ।

वह बताता है कि आने-जाने में ही उसे परेषानी होती है। अण्डा या आमलेट बनाने में उसे कोई परेषानी नहीं होती। इसी के चलते, इब्राहिम को दुकान तक पहुंचाने के लिए परिवार का कोई व्यक्ति या दोस्त आते ही हैं।
वह कहता है कि अनेक कार्य करने के बाद उसे सूझा कि अण्डे की दुकान खोला जाए और फिर खुद ही सभी काम करने के लिए प्रयास करने लगा, इसके बाद उसकी दिक्कतें कम होती गईं। वह कहता है कि मजबूरी के कारण सब काम करना पड़ता है। पेट की खातिर, वह जिंदगी की जद्दोजहद में जूझने से पीछे नहीं हटता।
इब्राहिम, परिवार के लिए कितना जूझता है, यह इसी से पता चलता है कि उसके परिवार में 15 लोग हैं। इब्राहिम के खुद के 2 बच्चे हैं और उसकी पत्नी भी एक पैर से विकलांग है। इससे पारिवारिक और आर्थिक समस्या समझी जा सकती है, फिर भी इब्राहिम और उसके परिवार के लोगों ने हार नहीं मानीं। जिसके बाद, अब धीरे-धीरे सुखद परिणाम सामने आते जा रहा है।
इब्राहिम को शासन से मदद की दरकार है, लेकिन उसे यह दर्द भी है कि शासन यदि मदद करता, तो फिर उसे इतनी मषक्कत नहीं करनी पड़ती। इब्राहिम को निःषक्त होने के कारण राषनकार्ड मिला था, किन्तु यह विडंबना है कि उसे भी नगर पंचायत ने छिन लिया है। ऐसे में उसका एक सहारा भी खत्म हो गया है।
इब्राहिम को महज 2 सौ रूपये पेंषन मिलती है। शासन की पीडीएस योजना के तहत उसे चावल भी मिलता था, लेकिन इब्राहिम के राषन कार्ड को नगर पंचायत ने लिया है। ऐसे में इब्राहिम को, अब चावल खरीदने की चिंता सताने लगी है।

अण्डे की दुकान चलाने वाले इब्राहिम, दोनों आंखों से नेत्रहीन हैं, बावजूद वह साइज के हिसाब से नोटों और सिक्कों को पहचान लेता है। कौन सा नोट 10 का है, 20 का है या फिर, 50 या 100 रूपये का। सभी नोटों को इब्राहित छूकर पहचान लेता है। इसके इतर, जितने भी सिक्के मिलते हैं, उन सिक्कों को उसे पहचानने में भी समय नहीं लगता। यही वजह है कि अण्डे की बिक्री के बाद, वह खुद ही ग्राहकों से पैसे लेता है। खास बात यह है कि इब्राहिम, 5 सौ का नोट, चिल्हर कराने की दिक्कतों के चलते नहीं लेता। 5 सौ के नोट देने पर वह ग्राहकों से पूछ लेता है और उसे वापस कर देता है।
इब्राहिम द्वारा बनाए गए अण्डे का आमलेट खाने के लिए रोजाना बहुत लोग आते हैं। इब्राहिम की मेहनत को भी वे समझते हैं और उसके उत्साह को बढ़ाने में भी, सभी ग्राहक आगे नजर आते हैं। इब्राहिम के पास जो भी ग्राहक पहुंचता है, सभी इब्राहिम के साहसिक कार्यों को देखकर सोचने पर विवष हो जाता है।
नगर पंचायत खरौद के अध्यक्ष गोविंद प्रसाद यादव कहते हैं कि इब्राहिम मेहनती है। नेत्रहीन हैं, गरीब परिवार के हैं। परिवार पालने के लिए वह अण्डा दुकान चलाता है, निष्चित ही वह एक मिसाल है। वे कहते हैं कि शासन की योजना का लाभ दिलाने का हरसंभव प्रयास किया जाएगा और कलेक्टर से मुलाकात कर चर्चा की जाएगी।
अब देखना होगा कि इब्राहिम की तकलीफें कब तक दूर होती हैं और प्रषासन के हुक्मरान, आखिर कब तक इन जैसों निःषक्तों की सुध लेते हैं ? इब्राहिम को फिलहाल जो मदद मिल रही है, उसे नाकाफी ही कही जा सकती है। इब्राहिम ने समाज में जो मिसाल पेष की है, निष्चित ही उससे हर किसी को सीख लेने की जरूरत है कि कितनी भी तकलीफें आ जाए, जिंदगी को संवारने का ‘जुनून’ कायम रखना चाहिए।

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