Monday, July 7, 2008

गुदडी के लाल, मंगत रवीन्‍द्र


सरिता की प्रवाहित धारा, समीर की निरंतरता, उदित रवि किरण, शशि की मनोहारी पुंज इंद्रधनुष छटा, ललना की ललक, नारी श्रद्धा एवं लज्‍जा, पुरूष की सुरभि को कोई रोक नहीं सकता। ऐसे ही छत्‍तीसगढी प्रख्‍यात कवि एवं लेखक मंगत रवीन्‍द्र की प्रतिभा को आंका जा सकता है। उन्‍हें जिले व प्रदेश के लिए गुदडी के लाल कहें तो अति‍शयोक्ति नहीं होगी।
जांजगीर-चांपा जिले के अकलतरा विकासखंड के ग्राम कापन में शासकीय उच्‍चतर माध्‍यमिक शाला में सन 1990 से विज्ञान शिक्षक के रूप् में कार्यरत मंगत रवीन्‍द्र, बचपन से ही प्रतिभा के धनी थे। चित्रकारी, मूर्तिकला एवं संगीत के क्षेत्र में उनकी गहरी रूचि है। वे स्‍वभाव से ही मिलनसार, सरल, म्रदुभाषी सतत अध्‍ययनशील, निष्‍ठावान साधक, सादगीपूर्ण जीवन बीताने वाले कर्मठ व्‍‍यक्तित्‍व के धनी थे। उनकी ज्‍योतिष में भी काफी रूचि है। उनके जीवन की कथाएं इनकी क्रति मेरा जीवन में मिलती है। उनका सिद्धांत है कि काम करने से धन, आचरण करने से सम्‍मान और अध्‍ययन करने से विदया प्राप्‍त होती है। स्‍नाकोत्‍तर तक शिक्षा प्राप्‍त 47 वर्षीय मंगत रवीन्‍द्र मूलत: कोरबा जिले के ग्राम गिधौरी, भैंसमा के निवासी है। बचपन से आर्थिक विपन्‍नता को झेलते हुए अपनी स्रजनशीलता को जारी रखा और ग्राम कापन में विज्ञान शिक्षक के रूप में पदस्‍‍थ हुए, तबसे लेकर अपनी ईमानदारी एवं कर्मठता के कारण यहीं पदस्‍‍थ हैं। अध्‍ययशील व्‍यक्तित्‍व होने के कारण बचपन से पुराण, रामायण, गीता, भागवत, सुखसागर, प्रेमसागर, आल्‍हाखंड, महाभारत, ज्‍योतिष, सामु‍द्रिक शास्‍त्र एवं अन्‍य विविध धर्मग्रंथों के विविध साहित्‍यों का अध्‍ययन-मनन करते हैं। उन्‍हें जहां भी अच्‍छा साहित्‍य मिलता है, उसके अध्‍ययन में जुट जाते हैं। इसके अलावा वे संगीत व वादन के क्षेत्र में गम्‍मत, रामायण एवं छत्‍तीसगढी नाच पार्टी में कार्य करते रहे। श्री रवीन्‍द जी ने 1978 में वैदय विशारद एवं आयुर्वेद का अध्‍ययन कर परीक्षाएं उत्‍तीर्ण की। इसके बाद उन्‍होंने गांव में ही रहकर जडी-बूटी द्वारा गरीबों-निर्धनों का इलाज करना प्रारंभ किया। इनका कहना है कि सागर की गहराई से मोती और शास्‍त्रों के परायण से ज्ञान रूपी मणि प्राप्‍त होता है। जो हदय रूपी मंदिर को प्रभाववान बनाता है। उनका यह भी कहना है कि जो व्‍यक्ति वर्तमान की उपेक्षा करता है, वह अपना सब कुछ खो देता है। अत: हर पल कीमती है, इसे गंवाना नहीं चाहिए। जिसने समय को गंवाया समझो, पास खो दिया। वे पुस्‍तक को अपना मित्र मानते हैं। अध्‍ययन के लिए समय का सदुपयोग के साथ ही ज्ञान की प्राप्ति होती है और इससे उन्‍हें परम सुख की प्राप्ति होती है। सर्वप्रथम साहित्‍य समि‍ति जांजगीर व दलहा साहित्‍य विकास परिषद अकलतरा के सानिध्‍य में रहकर उनकी साहित्‍य साहित्‍य के प्रति रूचि जाग्रत हुई। कहा जाता है कि प्रक्रति किसी को किसी को अकेला नहीं छोडती और उनका संपर्क वरिष्‍ठ साहित्‍यकार रामनारायण शुक्‍ल, पालेश्‍वर शर्मा, पं श्‍याम लाल चतुर्वेदी आदि से होने पर उनकी स्रजनशीलता की गाडी आगे बढी और उन्‍हें साहित्‍यकारों विदयाभूषण मिश्र, विजय राठौर, मुकुंद लाल साहू, अश्विनी केशरवानी, सतीश पांडे, रमेश सोनी, संजीव चंदेल सहित अन्‍य लोगों का सहयोग मिला। श्री रवीन्‍द्र जी ने अपने अपंजीक्रत प्रकाशन काव्‍य हंस सेवा सदन कापन किताब प्रकाशित किया, इसके बाद उनकी छोटी-छोटी अनेक किताबें छपती रहीं, उनकी अनेक क्रतियां नवरात्रि गीत 1993, दोहा मंजूषा 1993, छत्‍तीसगढी भाषा व्‍याकरण प्रथम बार 1994, द्वितीय बार 2000, ततीय बार 2006, होली के रंग, गोरी के संग 1995, माता सेवा 1999, आधुनिक विचार 2000, सुगंध धारा 2001, सतगुरू चालीसा 2002, रतनजोत 2002, चमेली डारा 2004, श्री परदेशी बाबा : एक दर्शन 2005, गुड ढिंढा 2006, कंचन पान 2006, काव्‍य उर्मिला 2006 तथा सत्‍य सुधा 2006 आदि हैं। श्री रवीन्‍द्र जी को उनकी क्रति एवं छत्‍तीसगढ साहित्‍य के लिए आस्‍था कला मंच अकलतरा ने 2003 में सम्‍मानित किया। इसके बाद उन्‍हें आज तक दो दर्जन से अधिक सम्‍मान व पुरस्‍कार प्राप्‍त हो चुके हैं। जिनमें प्रमुख रूप से 2004 में साहित्‍य अकादमी नई दिल्‍ली द्वारा भाषा सम्‍मान एवं 2005 में वतन के राही पर कवि रत्‍न सम्‍मान व पुरस्‍कार शामिल हैं। श्री रवीन्‍द्र जी की कई आलेख, कविताएं, गीत, कहानियां, रूपक सहित विभिन्‍न शीर्ष पत्र-पत्रिकाओं में प्रका‍शित व आकाशवाणी बिलासपुर तथा रायपुर से प्रसारित हो चुकी हैं। उल्‍लेखनीय है कि इनकी एक रचना रविशंकर विश्‍वविदयालय रायपुर की एम ए पूर्व हिन्‍दी साहित्‍य के छत्‍तीसगढी भाषा सतंभ में एक कहानी सउत बेटी पाठयक्रम में शा‍मिल हैं। वहीं गुरू घासीदास विश्‍वविदयालय बिलासपुर के बी ए अंतिम वर्ष के हिन्‍दी साहित्‍य के छत्‍तीसगढी स्‍तंभ में नाम उल्‍ले‍खित किया गया है। श्री रवीन्‍द्र जी को छत्‍तीसगढी कहानियों को अनूठा संकलन गुड ढिंढा में मिलता है1 वे किसी भी विषय को गंभीरता से स्‍वीकारते हैं। जिसमें गांव जीवन का सजीव चित्रण, पात्रों की अंतर्दशा का सहज ढंग से चित्रण किया है। रवीन्‍द्र जी ने गरीबी एवं ग्राम जीवन को अत्‍यंत करीब से देखा है। इसलिए कुंडलियों के सूर श्री हरिप्रसाद निडर ने इन्‍हें छत्‍तीसगढी साहित्‍य एवं विकास जानकारी दी। चिनहरी सन 1996 में लगातर छह माह तक श्रंखलाबद्ध छपी। इसकी अंक में उनका 55 छत्‍तीसगढी कहा‍नियां, सन 1998-99 में लगातार प्रकाशित हुई। श्री रवीन्‍द्र जी का साहित्‍य स्रजन ही धर्म है। वे वर्तमान में छत्‍तीसगढ के महान संत गुरू घासीदास जी का संपूर्ण चरित्र महाकाव्‍य के रूप में लिख रहे हैं। यह महाकाब्‍य 1300 प्रष्‍ठों के 7 सर्गों में होगा, सन 2008 तक पूर्ण होने की संभावना है। श्री रवीन्‍द्र जी का छत्‍तीसगढी साहित्‍य कें क्षेत्र में विशेष स्‍थान है। वे छत्‍तीसगढी बोली को आगे बढाने के लिए तन्‍मयता के साथ जुडकर साहित्‍य के क्षेत्र में प्रयासरत है। पूर्व में भी उन्‍होंने छत्‍तीसगढी बोली को उच्‍च् स्‍थान दिलाने तथा भाषा बनाने की पुरजोर वकालत की थी, अंतत: राज्‍य शासन ने सभी साहित्‍यकारों की मांग को जायज ठहराया और छत्‍तीसगढी को राजभाषा का दर्जा दे दिया तथा आयोग का भी गठन किया गया है। श्री रवीन्‍द्र जी की छत्‍तीसगढी भाषा के संदर्भ में उनकी जुबान हमेशा प्रस्‍फुटित होती है।
साग जिमी कांदा, अमचूरहा कढी।
अब्‍बउ मयारू हे, ये भाखा छत्‍तीसगढी ।।

1 comment:

Prabhakar said...

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k,p[',kvp,.]l....